Friday, November 22, 2024

सह अस्तित्व का प्रकाशन

कभी हम किसी फूल, पौधे, वृक्ष, पंछी, बच्चे, किसी स्त्री/पुरुष या स्वयं की सुंदरता देखकर मुग्ध हो जाते हैं। 




कभी छोटे बच्चों की निश्चल मुस्कुराहट हमारा ध्यान खींच लेती है।  


कभी किसी के सुंदर भावपूर्ण व्यवहार या एक भावपूर्ण परिवार को देखकर हम भी खुशी से भर जाते हैं।



मुख्यत: हम देख क्या रहे हैं? 

पर जब हम ध्यान से देखते हैं तब...

हमें दिखाई देता है जड़ प्रकृति, चैतन्य प्रकृति और व्यापक (निरपेक्ष ऊर्जा/ परम सत्ता/ शून्य) का "सह अस्तित्व"....


हमें दिखाई देता है...

सह अस्तित्व के रूप में व्यापक, व्यापक में प्रकृति, 

प्रकृति (जड़ व चैतन्य) में व्यवस्था, हार्मोनी, सुंदर तालमेल 


तथा हमें दिखाई देता है....

पदार्थ अवस्था, 

प्राण अवस्था, 

जीव अवस्था 

ज्ञान अवस्था द्वारा व्यापक का भावों/ मूल्यों के रूप में प्रकाशन.... 🌸

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चारों अवस्था में मानव को छोड़कर सभी अपने डिजाइन के अनुरूप प्रकाशित हैं।

मानव में अपने डिजाइन के अनुरूप प्रकाशन "मानव चेतना" कहलाता है अन्यथा अपने डिजाइन के विपरीत जीना जागृतिक्रम या जीव चेतना कहलाता है।

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परिभाषाएँ-

  • व्यापक - सर्वत्र विद्यमान सत्ता, ऊर्जा, शून्य, व्यापक, ईश्वर, ब्रह्म, चेतना, ज्ञान, लोकेश, परमात्मा, निरपेक्ष शक्ति।

  -सर्वत्र, सर्वकाल में साम्य रूप में वर्तमान।

  • जीव अवस्था - जड़- चैतन्य का संयुक्त साकार रूप
  • ज्ञान अवस्था- जड़- चैतन्य का संयुक्त साकार रूप
  • मूल्य - जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य, उपयोगिता मूल्य व कला मूल्य का प्रमाण परंपरा।       

- प्रत्येक इकाई में निहित मौलिकता ही मूल्य है।

(प्रस्तुति मध्यस्थ दर्शन के विद्यार्थी के हैसियत से)

(चित्र: साभार गूगल)


Tuesday, November 19, 2024

व्यवस्था / संतुलन

 असंतुलन या अव्यवस्था ही प्रकृति में व मानव शरीर और मन में प्रदूषण है। 

यदि प्रकृति में चारों अवस्था में असंतुलन है तो होने वाला परिणाम प्रदूषण है, अव्यवस्था है।

यदि मानव तन में द्रव्य पदार्थों का असन्तुलन है तो उसका परिणाम अस्वस्थ शरीर है।

यदि मानव मन, विचारों में असंतुलन है तो परिणाम मानसिक अस्वस्थता, शारीरिक अस्वस्थता व प्रकृति में असंतुलन है अर्थात अव्यवस्था है।

समाधान- 

यदि प्रकृति के चारों अवस्था में, मानव के शरीर में और मानव मन में संतुलन या व्यवस्था देखनी है तो 

"स्वयं में व्यवस्था का ज्ञान", "प्रकृति या अस्तित्व में व्यवस्था का ज्ञान" तथा "मानवीयता पूर्ण आचरण का ज्ञान" आवश्यक है।

बगैर इन तीनों ज्ञान के कहीं भी संतुलन/ व्यवस्था संभव नहीं साथ ही

निरंतर व्यवस्था में/से/के लिए भागीदारी संभव नहीं।

(विचार मध्यस्थ दर्शन के विद्यार्थी के हैसियत से)