Tuesday, October 24, 2017

संयम काल में अध्ययन

प्रश्न: समाधि के बाद संयम में आपने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया?

उत्तर: आपको मुझसे यह सूचना के रूप में बात मिली है कि मैं साधना, समाधि, संयम विधि से मध्यस्थ-दर्शन की पूरी बात को पाया हूँ। उससे आप यह कह रहे हैं - संयम काल में मैंने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया, जिसका परम्परा में कोई जिक्र नहीं था। आपका यह जिज्ञासा पूरा होना चाहिए - यह मेरा शुभ-कामना है।

मेरे पास पहले से यह कोई विचार नहीं था कि मैं यह अध्ययन करूंगा। पहला मुद्दा यह है। संयम करने से पहले मेरे पास अध्ययन का कोई syllabus नहीं था। उससे पहले समाधि में मैंने अपने आशा, विचार, और इच्छा को चुप होते देखा था। ऐसे स्थिति में - दिन में १२-१८ घंटे तक मैं ज्ञान होने का इन्तेज़ार में रहता था। समाधि में ज्ञान हुआ नहीं। अब क्या किया जाए? समाधि में ज्ञान नहीं होता - इसका अपने साथी, सहयोगी, और मित्रों को message देना है। पतंजलि योग-सूत्र में लिखा है - यदि संयम सफल होता है, तो समाधि होने की गवाही हो जाती है। उसके आधार पर संयम करने के लिए मैंने अपने मन को तैयार किया।

संयम के बारे में शास्त्रों में जो लिखा था - वह सिद्धि मात्र को प्राप्त करने के लिए है, ऐसी मेरी स्वीकृति हुई। सिद्धियाँ तो संसार को बुद्धू बनाने वालों को चाहिए। मुझे सिद्धि नहीं चाहिए - यह मैंने स्वीकारा। शास्त्रों में लिखा था - धारणा , ध्यान, और समाधि इन तीनो को जब हम इस क्रम में एकत्र करते हैं तो संयम होता है। मुझ में यह अन्तः-प्रेरणा हुई कि इस formula को उलटाया जाए। वैसा करने से शायद कुछ निकले - जो इससे भिन्न होगा। क्या भिन्न होगा - वही उसकी गवाही होगी। इस तरह मैंने समाधि, ध्यान, धारणा - इस क्रम में इन स्थितियों को एकत्र करने का निर्णय किया। स्वयं पर विश्वास और दृढ़ता करने की प्रवृत्ति मुझ में पहले से ही थी।

मैं पहले धारणा, ध्यान, और समाधि की भूमियों से गुजरा ही था - इसलिए इन स्थितयों को एकत्र करने में मुझको कोई मुश्किल नहीं हुई। न ही इसमें कोई ज्यादा समय लगा। इस तरह मैं अपने चित्त और वृत्ति को लगाने में तत्पर हुआ। कुछ चार महीने के बाद - मैं बहुत सारी ध्वनियां सुनने लगा - कई ऐसी ध्वनियां जो मैं पहले सुना नहीं था। मैंने सोचा - मुझे कर्ण-नाद तो नहीं हो गया है? लेकिन संयम के समय के बाद ऐसी कोई ध्वनियां होती नहीं रही। यह क्या है? - यह आगे पता चलेगा, यह सोच कर आगे चले। कुछ समय के बाद वे ध्वनियां शांत हो गयी। शांत हो गया - एक दम। शांत होने के स्थिति में वैसा ही था - जैसे गहरे पानी में डूबने पर आँखे खोलने पर सूरज, पानी, और आंखों के बीच जैसा दिखता है - वैसी ही स्थिति में मैं संयम में स्थित हो गया।

फ़िर धीरे-धीरे प्रकृति अपने आप उभड-उभड कर सामने आने लगी। धरती अपने स्वरुप में आयी। वनस्पतियाँ अपने स्वरुप में आयी। जीव संसार अपने स्वरुप में आया। मनुष्य संसार अपने स्वरुप में आया। ऐसा होने लगा। पहले धरती आयी। फ़िर ऐसी अनंत धरतियां। यह कोई महीने भर चला होगा। जैसे सिनेमा में देखते हैं - वैसे मुझको संसार दीखता रहा। इसके आगे चलने पर - एक चट्टान - फ़िर उसके detail में जाने पर, जैसे चूना पिघलता है, वह पिघला। और पिघल कर के फैला - और फ़ैल करके फैलते-फैलते उस जगह में आ गया, जहाँ वह हर भाग स्वचालित स्थिति में था। ऐसा मैंने परमाणु को देखा, पता लगाया।

इस तरह से कई चीजें पिघल पिघल कर मूल रूप में परमाणु के रूप में होने को मैंने देखा है। कुछ वस्तुओं के नाम मैं जानता हूँ, कुछ के नाम भी मैं नहीं जानता। ऐसे चीजों को पिघल कर स्वचालित स्वरुप में detail में मैं पहचाना। "यही परमाणु है।" - यह मैंने cognate किया। इस परमाणु को चलाने वाला कोई नहीं है - यह पहचाना। अनेक प्रजाति के परमाणुओं को व्यापक वस्तु में डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरे हुए स्वरुप में देखा।

उसके बाद प्राण-कोशा के स्वरुप में देखा। प्राण-कोशा के मूल रूप में यौगिक क्रिया के स्वरुप में अपने सम्मुख में आते हुए चित्र के रूप में देखता रहा। इसमें मुझे बहुत खुश-हाली होती रही। इस तरह हर वस्तु का detail में अध्ययन होता है, इसके अलावा पढने को चाहिए ही क्या? यही पढने की वस्तु रही। ऐसा पढ़ते-पढ़ते मनुष्य आ गया। मनुष्य में प्राण-कोशा से रचित शरीर। प्राण-कोशा पहले स्पष्ट हुए - प्राण-कोशा कैसे बनते हैं। प्राण-कोशा के मूल में प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्र के मूल में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व। पुष्टि-तत्व को आप लोग protein कहते हो। रचना-तत्व को आप लोग harmone कहते हो। आप लोग वह भाषा जानते हैं - उस वस्तु को जानते नहीं हैं। वस्तु को मैं जानता हूँ। आप पुष्टि-तत्व को जानते नहीं हैं - पुष्टि-तत्व का नाम जानते हैं। वह पुष्टि-तत्व वस्तु के रूप में क्या है - वह आप नहीं जानते - उसको मैं जानता हूँ। उसी प्रकार प्राण-कोशा और प्राण-सूत्रों से रचना। प्राण-सूत्रों का नाम आप जानते हैं - वह प्राण-सूत्र किस वस्तु से कैसे बना है, उसको मैं देखा हूँ। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व निश्चित अनुपात में एक दूसरे से जुड़ जाते हैं - वैसे ही जैसे दो परमाणु-अंश एक दूसरे को पहचान करके साथ हो जाते हैं। जुड़ते हुए देखा है मैंने! जुड़ करके प्राण-सूत्र होते हुए देखा है! प्राण-सूत्र बन कर जल में निमग्न रहता हुआ देखा है। रसायन-जल में निमग्न रहते हुए - उनमें श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया की शुरुआत होते हुए देखा है! इससे ज्यादा क्या detail में देखना है? देखना है? मुझको पहले से यह सब देखने की इच्छा थी - ऐसा कुछ नहीं था। अपने आप से यह सब देखने को मिला।
प्राण-सूत्रों में जब श्वसन और प्रश्वसन की प्रक्रिया शुरू होती थी - तो उनमें एक खुशहाली दिखाई देती थी। उस खुश-हाली के साथ उनमें एक रचना विधि उभर के आ जाती थी। उस रचना में वे संलग्न हो जाते थे। उसके बाद बीज-वृक्ष न्याय विधि से उनकी परम्परा बनी। उसकी खुश-हाली से दूसरी रचना-विधि निकली। दूसरी रचना किए। वह फ़िर परम्परा हुआ - बीज वृक्ष विधि से। इस ढंग से अनेक रचनाएँ प्राण-सूत्रों से हुई।

रसायन तत्वों के मूल में गए - तो उनके मूल में है "जल"। किसी भी धरती पर पहला यौगिक वस्तु जल ही है। जल धरती पर ही टिकता है। घरती से मिल कर जल अम्ल और क्षार ग्रहण कर लेता है। किसी निश्चित अनुपात में अम्ल और क्षार मिल कर पुष्टि-तत्व होता है। किसी निश्चित अनुपात में मिल कर वे रचना-तत्व होते हैं। इसको देखा। इस तरह प्राण-सूत्रों का बनना देखा। प्राण-सूत्रों से रचनाएँ होते देखा।

संयम काल में कुछ कुछ जगह पर मैंने संस्कृत लिपि में लिखा हुआ भी देखा। यह सब बात देखने पर मुझे विशवास हुआ - यह संयम तो पढने की चीज है! इसको आगे बढाए - चारों अवस्थाएं जब स्पष्ट हो गयी, यह फ़िर दोहराने लगा।

पहले एक वर्ष मैं इन्तेज़ार ही करता रहा। फ़िर २-३ महीने ध्वनियों की बात रही, उसके बाद समाधि के आकार में आने में कुछ समय लगा, उसके बाद ध्यान की जगह में मैं जैसे ही पहुँचा - यह सब "तांडव" होने लगा! पूरा जड़ और चैतन्य प्रकृति व्यापक वस्तु में अपने आप को किस तरह से निरंतर पाया है। दूसरे - योग संयोग कैसे प्रकट हुआ है।

एक दिन मैं संयम में देखता हूँ - परमाणुएं अपने आप एक लाइन में लग गए। एक, दो, तीन, चार, उन्हें मैं गिन सकता था। कुछ संख्या के बाद परमाणुओं का अजीर्ण होना मिला। जो परमाणु अपने में से कुछ परमाणु-अंशों को बहिर्गत करना चाह रहे हैं - उनको मैंने अजीर्ण नाम दिया। उससे पहले कुछ परमाणुओं को भूखे परमाणुओं के रूप में देखा। वे परमाणु अपने में कुछ और परमाणु-अंशों को समा लेना चाह रहे हैं। इन दोनों तरह के परमाणुओं के मध्य में मैं एक ऐसे परमाणु को भी देखा - जो अपने एक आकार में घूम रहा है। जबकि बाकी सब परमाणु अपनी जगह में बैठे हैं। जब उस परमाणु को एक जगह में स्थिर होते हुए देखा - तब पता लगा इसकी गठन-तृप्ति हो गयी है। इस तृप्त परमाणु को गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया।

प्रश्न: क्या आपने संक्रमण होते हुए भी देखा?

नहीं। संक्रमण की कोई अवधि नहीं होती - इसलिए वह नहीं देखा। समय विहीनता का दर्शन नहीं होता। समय-विहीनता का मात्र अनुभव होता है। कतार में भूखे, अजीर्ण, और तृप्त परमाणु हैं - उनको देखा। लेकिन संक्रमण होते हुए नहीं देखा। संक्रमण हो गया है - यह अपना capacity लगता ही है, interpret करने में। वैसे ही - जैसे किसी क्रिया को नाम देने में हमारा capacity लगता है। तृप्त परमाणु अपने गठन में पूर्ण हो गया - तभी यह अपने आकार को बनाए रखा। गठन-पूर्ण परमाणु अनु-बंधन और भार-बंधन दोनों से मुक्त हो गया - और आशा-बंधन से युक्त हो गया। आशा-बंधन के आधार पर यह अपना पुंज-आकार बनाया। उस आकार की शरीर-रचना सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से उपलब्ध रही - जिसको चलाने के लिए प्रवृत्ति।
जीवन-परमाणु को पहले मैंने पुन्जाकर स्वरुप में देखा। उसके बाद धीरे-धीरे वह परमाणु के रूप में सम्मुख हुआ। उसमें मैंने देखा - मध्य में एक ही अंश है। यह देखने के लिए परमाणु कितना magnify हुआ होगा - यह मैं नहीं कह सकता। पर मैं परमाणु-अंशों को गिन सकता था। हर बात को मैं समझ सकता था। मध्य में एक अंश, पहले परिवेश में २, दूसरे में ८, फ़िर १८, फ़िर ३२ - इस तरह ६१ परमाणु-अंशों को मैंने जीवन-परमाणु में देखा।
इन ६१ परमाणु-अंशों में परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों हैं। परावर्तन में प्रकाशन करना बनता है। प्रत्यावर्तन में स्वीकार करना बनता है। इस तरह जीवन में ६१ परावर्तन और ६१ ही प्रत्यावर्तन में क्रियाएं हैं। इन कुल १२२ क्रियाओं को मैंने मानव-संचेत्नावादी मनोविज्ञान में स्पष्ट किया है। संयम काल में जीवन की क्रियाओं को गिनने का काम मैंने किया।

प्रश्न: इस सब में कितना समय लगा?

संयम काल में अध्ययन करने में मुझे ५ वर्ष लगे। जब तक मैंने यह नहीं माना कि मेरा अध्ययन पूरा हो गया है - इस दृश्य की पुनरावृत्ति होती रही। इससे मैंने माना कि नियति स्वयं प्रकटनशील है। इसमें कोई रहस्य नहीं है। अस्तित्व कोई रहस्य नहीं है - मैं यहाँ आ गया। यह स्वयं में विश्वास होने पर कि मेरा अध्ययन पूरा हुआ - फ़िर पहले जैसे ही अनेक धरतियां, जलता हुआ सूरज जैसा प्रतिबिंबित होता रहा। कई धरतियों को मैं देखते रहा। इन धरतियों में से कई में चारों अवस्थाओं को स्थापित भी देखा। स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म सब कुछ देखने के पर मैंने निर्णय किया - यही अस्तित्व है। यही व्यापक में संपृक्त प्रकृति है। इस बात में जब मुझको पूरा विश्वास हुआ - उसके बाद मैंने संयम को बंद किया।

प्रश्न: आपको जैसा अस्तित्व अध्ययन हुआ - क्या हमको भी वैसा ही अध्ययन होगा?

भाषा से वांग्मय के रूप में जो मैंने प्रस्तुत किया है - उसके अर्थ में जाओगे तो आपको वही मिलेगा। आपके पास उसके लिए agency है - कल्पनाशीलता। कल्पनाशीलता आपके पास agency है - अर्थ तक पहुँचने के लिए। अर्थ अस्तित्व में है। भाषा से जो मैंने कहा है - उसका अर्थ अस्तित्व में है।

मुझे यह पता लगा - मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। जागृति जीवन द्वारा दसों क्रियाएं व्यक्त करने के रूप में हैं। १० क्रियाओं के detail में १२२ आचरण हैं - ६१ परावर्तन में, ६१ प्रत्यावर्तन में। इनको गिनने के बाद मुझको तृप्ति हुई कि संयम जो मैंने किया था, वह सार्थक हुआ। संयम सार्थक होने के बाद प्रयास ख़त्म हो गया।

इससे यह निकल गया - (१) भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है। (२) अस्तित्व में परिवर्तन है - उत्पत्ति नहीं है।

तृप्त परमाणु को मैंने पुंज-आकार में होता हुआ देखा। कभी घोडे, कभी गधे, कभी बकरी, तो कभी मानव के आकार में। कई प्रकार से यह दीखता रहा - यह महीनो तक चला। उसके बाद पुन्जाकार के मूल में परमाणु अपने में स्थिर हुआ - वह भी बाकी भूखे और अजीर्ण परमाणुओं की कतार में जैसे देखा था, वैसे ही एक परमाणु ही है। उसमें चार परिवेश और एक मध्य में अंश देखा। यह मुझ को समझ में आ गया : यह एक विशेष परमाणु है - जिसमें तृप्ति है। जब उसकी पूरी क्रियाएं मेरी गिनती में आ गयी - यह पता लगा उसमें परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों है। जब ६१ प्रकार के परावर्तन और प्रत्यावर्तन का अध्ययन मेरा पूरा हो गया तो मैंने माना मेरा जीवन का अध्ययन पूरा हो गया।

विगत में कहा था - ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ। जीव के ह्रदय में ब्रह्म बैठा हुआ है - यह लिखा था। यह सब झूठ निकल गया। इसके विपरीत मैंने पाया - जीवन एक गठंपूर्ण परमाणु है, जो शरीर को चलाता है। मनुष्य शरीर के साथ एक विशेषता देखी - जीवन की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को इसके साथ दूर दूर तक फैलता देखा। यहाँ तक मैंने देख लिया।

समाधि से बाहर निकलने पर मैं जीवन से सम्बंधित बात को मैं अपने में अध्ययन करता ही रहा। होते-होते पता चला - जीवन ही भ्रम-वश बंधन में पीड़ित होता है। जीवन ही जागृत हो कर बंधन से मुक्त हो जाता है। भ्रमित होने से बंधन। भ्रम-मुक्त होने से जागृति। भ्रम अति-व्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोष है। फ़िर भाषा से तो मेरे पास पहले से थोड़ा था ही - उसके साथ परिभाषा के साथ मैं समृद्ध हुआ। धीरे धीरे इस बात को मैं दूसरों को बताने में सफल हुआ।

प्रश्न: व्यापक वस्तु के पारगामी और पारदर्शी होने का आपने कैसे अनुभव किया?

जड़ और चैतन्य व्यापक वस्तु से घिरा है - यह मैंने देखा। डूबा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ से पारगामियता स्पष्ट हुई। डूबा हुआ है - यह क्रियाशीलता के रूप में पहचाना। एक दूसरे का परस्परता में प्रतिबिम्बन है - इससे पारदर्शिता समझ में आ गयी। प्रतिबिम्बन विधि से ही इकाइयों की परस्परता में पहचान है। ४-५ वर्ष में यह बात कितनी ही बार दोहराया होगा - जब तक मैं तृप्त नहीं हो गया, तब तक यह repetition होता रहा। जो मैं साधना किया था - वही इस बात को बनाए रखा ऐसा मैं मानता हूँ।

इस तरह - समाधि होता है, संयम होता है - ये बात attest हुई। योग, आगम तंत्र उपासना विधि से जो समाधि की तरफ़ जो इशारा किया है, वह ग़लत नहीं है। समाधि में ज्ञान होता है, जो लिखा - वह ग़लत है!

सम्पूर्ण अस्तित्व क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

जीवन क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

मानवीयता पूर्ण आचरण क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

प्रश्न: क्या संयम काल में आपकी कोई पूर्व स्मृतियाँ भी कार्य-रत थी?

उत्तर: नहीं। समाधि में उनका निरोध हुआ, उसके बाद ध्यान, उसके बाद धारणा। इस तरह संयम काल में मेरी कोई पूर्व-स्मृतियाँ कार्य रत नहीं थी।

प्रश्न: अस्तित्व कैसा है?

उत्तर: अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में है। जड़ प्रकृति रसायन-प्रक्रिया द्वारा बाकी तीनो अवस्थाओं को प्रकटित करता है। मूलतः पदार्थ-अवस्था से ही सारा रचना है। वही पदार्थ-अवस्था से ही परमाणु में विकास। पदार्थ-अवस्था ही है परमाणु। पदार्थ-अवस्था के परमाणु ही विकास-क्रम में भूखे और अजीर्ण - और विकसित अवस्था में उनको तृप्त या गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया है।

प्रश्न: शरीर में जीवन कैसे काम करता है?

उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को चलाने के लिए मेधस-तंत्र समृद्ध होने की ज़रूरत है। मेधस-तंत्र समृद्ध हुए बिना जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाना बनता नहीं है। शरीर और जीवन के बीच मेधस-तंत्र एक battery है। जीवन पहले इस battery को चार्ज करता है। मेधस तंत्र को प्रभावित करने से पूरा मेधस-तंत्र चार्ज हो जाता है। तो शरीर जीवंत दीखता है। शरीर एक प्राण-कोशाओं से बना ताना-बाना है। हर प्राण-कोषा सत्ता में भीगा है। दो प्राण-कोशों के बीच की रिक्त-स्थली में से जीवन travel करता रहता है। गर्भावस्था में horizontal विधि से travel करता है, और उस तरह शिशु को जीवंत बनाता है। शिशु के बाहर आने पर जीवन horizontal और vertical दोनों विधियों से घूमता है। दोनों विधियों से संचार को स्थापित करके प्राण-कोशाओं के बीच के रंध्रों में से घूमता रहता है। उसकी स्पीड की कोई गणना नहीं की जा सकती। अक्षय-गति के रूप में यह पुन्जाकार है। उसकी गति के आगे संख्या defeat हो जाती है। किसी भी विधि से जीवन की स्पीड का संख्याकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न: अस्तित्व क्यों है? अस्तित्व का प्रयोजन क्या है?

उत्तर: अस्तित्व का लक्ष्य है - सह-अस्तित्व में मानव द्वारा ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित होना। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व है। दूसरे शब्दों में - यही अस्तित्व का प्रयोजन है। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्त प्रकटन विधि है। ज्ञान-अवस्था के प्रमाणित होने के लक्ष्य से ही सह-अस्तित्व विधि से अस्तित्व में प्रकटन है। अस्तित्व में प्रकटन है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और अंत में ज्ञान-अवस्था। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व का परम प्रमाण प्रस्तुत होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक) 

साभार- CVMS group
Posted by- Rakesh Gupta bhaiya ji.

Sunday, October 22, 2017

साधना विधि का विवरण


इस धरती पर ७०० करोड़ आदमियों के मन में कोई भी प्रश्न हों तो उसका उत्तर मेरे पास है.  यदि समस्या है तो उसका समाधान है.  प्रश्न समस्या ही है.  अभी तक मैं उस जगह नहीं पहुंचा जो मुझे कहना पड़े कि इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है.


प्रश्न:  आपने साधना किस विधि से किया - इसको कृपया और स्पष्ट करें.


उत्तर:  यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है फिर भी इसका उत्तर इस प्रकार से है.

पतंजलि योग सूत्र में साधना की आठ भूमियों को बताया गया है.  ( यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाध्योअष्टावन्गानि  [ २९ - साधनपाद, पतंजलि योग सूत्र])

इसमें पहले 'यम' और 'नियम' को बताया है - जो आचरण से सम्बंधित हैं.

उसके बाद 'आसन' और 'प्राणायाम' को बताया है - जो शरीर स्वस्थता से सम्बंधित हैं.

उसके बाद 'प्रत्याहार' में बताया है - मानसिकता में क्या सोचना चाहिए और क्या नहीं सोचना चाहिए.  इसमें विरक्ति या असंग्रह विधि से जीने की प्रेरणा है.  संग्रह प्रवृत्ति से मुक्ति को बहुत अच्छे से यहाँ समझाया गया है.

उसके बाद है - 'धारणा'.  (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा [ १ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  जिसका मतलब है - किसी वस्तु या क्षेत्र में हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो सकती हैं.  जैसे - एक चित्र के आकार में चित्त वृत्तियाँ निरोध होना.  कोई आकार, कोई देवी-देवता, कोई अक्षर, कोई कल्पना ही क्यों न हो, माता, पिता, या स्वयं के शरीर के आकार में चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो जाने को हम धारणा कहेंगे.

इसके बाद उसके निश्चित बिंदु में यदि हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध होती हैं, तो उसको 'ध्यान' नाम दिया.  ( तत्रप्रत्येकतानता ध्यानम  [२ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])

ध्यान के बिंदु का अर्थ रहे पर उसका स्वरूप न रहे, इस स्थिति का नाम है - 'समाधि'.  (तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधिः [३ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])

इसको आप पतंजलि  योग सूत्र में पढेंगे तो आपको वह यथावत मिलेगा.

समाधि में चित्त वृत्ति निरोध होता ही है.  चित्त-वृत्ति निरोध होने का मतलब है - हमारी आशा, विचार और इच्छाएं चुप हो जाना.  शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं - यह नहीं लिखा है.  मैं स्वयं इसको देखा हूँ.  आशा, विचार और इच्छा का चुप हो जाना समाधि है.  इसके आधार पर ही शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में लिखा है - मानव जो कुछ भी समझ सकता है, सोच सकता है - समाधि उसके पार की स्थिति है.  इस स्थिति में मुझे तो कोई ज्ञान मिला नहीं.  जिसको मिला हो, वो बताये!  समाधि का कोई गवाही नहीं होता है.  अब इसको बताएं तो कोई विश्वास कैसे करेगा?  तब 'संयम' की बात आयी.

(त्रयमेकत्र संयमः [४ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  एक विषय में तीनो (धारणा, ध्यान और समाधि) का होना संयम कहलाता  है.

विभूतिपाद में कई तरह के संयम की चर्चा है.  जैसे - (कंठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्ति [३०  - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  कंठकूप गलग्रंथि और स्वरग्रंथि के बीच के गड्ढे  को कहते हैं.    उस जगह में  संयम करने से भूख और प्यास से मुक्ति हो जाती है.  मेरे भूख-प्यास से मुक्त हो जाने से  संसार का कौनसा कल्याण हो जाएगा?  इससे क्या होने वाला  है?  ऐसा   अन्तःकरण में चर्चा होने पर उसका कोई  उत्तर मुझे मिला नहीं.

दूसरा - (नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् [२९  - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])  अर्थात नाभिचक्र में   संयम करने से एक ही आदमी अनेक शरीर स्वरूप में व्यक्त  हो सकता है.   यह सिद्धि किसको चाहिए?  जानमारी, सेंधमारी, लूटमारी करने वालों को इसकी ज़रूरत होगी.  मेरे लिए इसका क्या प्रयोजन है?  मुझे इस सिद्धि  का अपने लिए कोई प्रयोजन दिखा नहीं.

इस प्रकार पूरा विभूतिपाद मेरे लिए प्रयोजन का ध्वनि दे नहीं पाया.  किसी को इनमे प्रयोजन दिखता हो तो करते रहे!

इसके चलते, संयम में धारणा-ध्यान-समाधि के क्रम को उलटा किया; इस अपेक्षा में कि शायद इससे भिन्न कोई फल निकल आये.  इन तीन स्थितियों को एकत्र करने से संयम तो होगा ही, यदि मैं इनका क्रम बदलता हूँ तो शायद इस प्रक्रिया का फल बदल जाए!  क्या फल होगा, यह उस समय पता नहीं था.

इसको लेकर मैं चल दिया और मानव के पुण्य से मैं सफल हो गया.  क्या सफल हुआ?  मानव का अध्ययन हुआ, जीवन का अध्ययन हुआ, अस्तित्व का अध्ययन हुआ.  पूरा अस्तित्व अध्ययन होने पर विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति सूत्रों का पता चला.  इन चार सूत्रों में यह सारा अध्ययन समाता है.  इन चार सूत्रों को फिर वांग्मय स्वरूप दिया.  क्यों दिया?  पहला - धरती बीमार हो गयी है, शायद इसको समझने में ही धरती की दवाई है.  दूसरे - यह उपलब्धि मेरे अकेले की नहीं है, मानव जाति की उपलब्धि है.  यह ठीक हुआ या नहीं हुआ - यह आगे विद्वान लोग तय करेंगे.

विगत से जो भी दर्शन उपलब्ध हैं वे रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन के स्वरूप में हैं.  रहस्य में ही सारी बात किये हैं.  रहस्य मानव का प्रमाण नहीं हो सकता.  रहस्य के आधार पर कुछ लिखने के पक्ष में मैं पहले भी नहीं था.  संयोग से यह देखने के बाद पता चला - अध्यव्सायिक विधि से समझ में आने वाली बात अभी तक बचा हुआ रहा है.  सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति का अध्ययन आवश्यक है.  मानव को जागृति पूर्वक जीना है.  पूरा दर्शन इस अर्थ में लिखा है.  अध्ययन पूर्वक सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ दृष्टा पद में होते हैं, जिसको प्रमाणित करने के क्रम में जागृति होती है.

प्रश्न:  आप जो समाधि-संयम पूर्वक अध्ययन किये, उसका स्वरूप क्या था?  हम जो अभी कर रहे हैं, उससे वह कैसे भिन्न है?

उत्तर:  आप कागज़ में अध्ययन करते हैं, मैंने प्रकृति में अध्ययन किया.  अभी जैसे परमाणु, अणु या बैक्टीरिया को देखने के लिए आपको एक लेबोरेटरी चाहिए.  इसके बिना आपको वह दीखता नहीं है.  मैंने वही वस्तु को सीधा प्रकृति में देखा है - इसमें किसको क्या तकलीफ है?  संयम की यही गरिमा है कि मैं इस तरह देख पाया.  आप जो सूक्ष्मतम देखने के लिए उपकरणों को प्राप्त किये हैं - चाहे विद्युत् विधि से हो या रेडिएशन विधि से - वे सब मानव की ताकत की आन्शिकता में हैं.  सभी लेबोरेटरी मानव के मनाकार का साकार स्वरूप है.  मानव अभी अपनी पूर्ण क्षमता को कहीं भी नियोजित कर ही नहीं पाता, आंशिक भाग को ही नियोजित कर पाता है.

स्वयं में मानव का होना-रहना बना ही रहता है.  होते-रहते हुए मानव अपनी ताकत को लगाता है.  अस्तित्व सहज विधि से होते हुए, किसी विधि से रहते हुए - मानव अपनी जितनी भी मानसिकता को नियोजित करता है, उसी में कोई डिजाईन बनाता है.  मनाकार को साकार करने में मानव पूरी तरह नियोजित हुआ नहीं है, बचा ही है.

मानव की सम्पूर्णता समाधान में ही व्यक्त होती है.  समाधान ही सुख है, मानव धर्म है.

मानव जाति की सम्पूर्णता समाधान स्वरूप में ही व्यक्त होती है - एक दूसरे के साथ.

तकनीकी विधि से मानव अपनी ताकत का थोडा सा ही परिचय दे पाया है.  नाश होने के भाग में मानव बहुत कुछ सुन चुका है, कर चुका है.  बचने के बारे में सुन नहीं पा रहा है.  नाश होने की घंटी तो बज ही रही है, अब उद्धार होने या बचने की घंटी को भी हिलाया जाए, बजाया जाए!  ऐसा मैं कह रहा हूँ.  इसको बदलना है तो बताओ!

प्रश्न: मानव ने भ्रमवश धरती को बहुत नुकसान पहुंचाया है.  अब जिस गति से मानव जाति इस बात को समझ रही है, उसको देख कर लगता है - कहीं समझ में आने से पहले धरती का नाश ही न हो जाए!  इसमें आपका क्या कहना है?

उत्तर:  यह कल्पना तो आता ही है.  आप कुछ अनुचित नहीं कह रहे हैं.  बचने के लिए हम एक प्रयोग ही कर सकते हैं.  हमारे पास जो समय शेष है उसमे हम अपराध मुक्त हो सकते हैं.  यदि दूसरे ग्रह पर भी जाना है, तो कम से कम वहां जा कर तो अपराध नहीं करेंगे!  दूसरे - यदि धरती में शक्तियां अभी भी शेष हैं, तो मानव के सुधरने पर उसके स्वस्थ होने का अवसर बन सकता है.  ये दोनों संभावनाओं को लेकर इस दर्शन को प्रस्तुत किया है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)

साभार- मध्यस्थ दर्शन ब्लॉग (जीवन विद्या - सह अस्तित्व में अध्ययन)
http://madhyasth-darshan.blogspot.in/2017/10/blog-post_21.html

Wednesday, October 11, 2017

"मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है"

विज्ञान युग आने के उपरांत उन्माद त्रय (भोगोन्माद, कामोन्माद, लाभोंमाद) का लोकव्यापीकरण कार्यों में शिक्षा और युद्ध वं व्यापार तंत्र का सहायक होना देखा गया। यही मुख्य रूप में धरती को तंग करने में सर्वाधिक लोगों के सम्मतशील होने में प्रेरक सूत्र रहा। यह समीक्षीत होता है कि सर्वाधिक मानव मानस वन, खनिज अपहरण कार्य में सम्मत रहा। तभी यह घटना सम्पन्न हो पाया। यहाँ इस बात को स्मरण में लाने के उद्देश्य से ही जन मानस की ओर ध्यान दिलाना उचित समझा गया कि धरती का पेट फाड़ने की क्रिया को मानव ने ही सम्पन्न किया। इस धरती का या हरेक धरती का दो ध्रुव होना आंकलन गम्य है। मानव इस मुद्दे को पहचानता है। इस धरती के दो ध्रुवों को मानव भले प्रकार से समझ चुका है। इसी को दक्षिणी ध्रुव-उत्तरी ध्रुव कहा जाता है। इसे पहचानने के क्रम में धरती के सम्पूर्ण द्रव्यों और वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर के ओर चुम्बकीय धारा प्रवाह और प्रभाव बना ही रहती है। ये धारा प्रवाह धरती ठोस होने का आधार बिन्दु है। क्योंकि परमाणु में ही भार बंधन, अणु-बंधन के कार्य को देखा जाता है। यही क्रम से ठोस होने के कार्यकलापों को सम्पादित कर लेता है। शरीर रचना में सभी अंग-अवयव एक साथ रचना क्रम में समृद्ध सुन्दर हो पाता है। इसी क्रम में अपने आप में सर्वांग सुन्दर होने के कार्यकलाप क्रिया को यह धरती स्पष्ट कर चुकी है। इसके प्रमाण में ठोस, तरल, विरल और रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना धरती के सतह में नित्य प्रसवन के रूप में सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है। यह भी हमें पता है यह धरती के पेट में से जो कुछ भी बाहर करना होता है वह स्वयं प्रयास से ही अथवा स्वयं के निश्चित कार्यकलाप के प्रणालीएवं ज्वालामुखी बाहर कर देता है। इससे हमें यह मालूम होता है कि धरती के लिए आवश्यकीय सभी खनिज वस्तु धरती के पेट में ही समायी रहती है। यह अपने सम्पूर्ण तंदुरस्ती को व्यक्त करने के क्रम में धरती पर अथवा धरती की सतह पर रासायनिक-भौतिक रचना-विरचनाएँ सम्पन्न हो पाती है। प्राणावस्था के अनंतर ही इस धरती पर ऋतुक्रम का प्रभाव, उसी क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर रचना क्रमश: रचना क्रम में श्रेष्ठताएँ स्थापित हुई। जीवन किसी निश्चित सह-अस्तित्व विधिपूर्ण वातावरण को पाकर ही गठनपूर्णता सम्पन्न होने की क्रिया भी प्राकृतिक विधि से स्थापित है। परमाणु में विकासपूर्णता और उसकी निरंतरता ही जीवनपद है। यही चैतन्य इकाई है। यह अणुबन्धन-भारबन्धन से मुक्त रहने के कारण एवं आशा, विचार, इच्छा बन्धन से संयुक्त रहने के कारण भ्रम-मुक्ति की अपेक्षा बने रहने के कारण मानव परंपरा में जीवन शरीर को संचालित करना सह-अस्तित्व सहज प्रभाव और उद्देश्य भी है। 
जीवन में ही आशा, विचार, इच्छा बन्धन से ही भ्रमित होकर उन्मादत्रय विधि से जो कुछ भी धरती के साथ मानव कर बैठा है वह इस प्रकार से अलंकारिक स्वरूप में है कि सर्वांगसुन्दर मानव के आंतों को अथवा गुर्दों को, अथवा हृदयतंत्र को बाहर करने के उपरान्त सटीक शरीर व्यवस्था चलने की अपेक्षा करना जितना मूर्खता भरी होती है वैसे ही धरती के आन्त्र तंत्रों को अर्थात् भीतर की तंत्रण द्रव्यों को बाहर करने के उपरान्त स्वस्थ्य धरती की अपेक्षा रखना भी उतनी ही मूर्खता है। ये सब कहानियों के मूल में सार संक्षेप यही है मानव ‘‘उन्मादत्रय, तकनीकी, ह्रासविधि ज्ञान रूपी विज्ञान’’ के संयुक्त रूप में जो कुछ भी क्रिया कलाप कर पाया वह सब सर्वप्रथम धरती के सर्वांगसुन्दरता और स्वस्थ्ता के विपरीत होना आकलित हो चुकी है।
धरती का ठोस होने के क्रम में दो ध्रुव स्थापित होना, परमाणुओं का भारबल सह-अस्तित्व प्रभावी अणु संघटन क्रिया कलाप में यह धरती अपने ठोस रूप को बनाए रखा है। ऐसी सर्वांग सुन्दर धरती में छेद करते-करते एक से एक गइराई में पहुँचकर चीजें निकालने की हविस पूरा किया जा रहा है। हविस का तात्पर्य शेखचिल्ली विधि से है। इन सभी कार्यों के परिणामस्वरूप जितने भी खतरे ज्ञात हो चुके हैं, उससे अधिक भी हो सकते है, इस तथ्य को स्वीकारा जा सकता है। धरती ठोस होने के क्रम में भारबन्धन सूत्र से सूत्रित होने के क्रम में सतह पर उसका प्रभाव स्थापित रहना सहज है। ऐसी चुम्बकीय धारा का मध्यबिन्दु, इस धरती के मध्य में ही होना स्वाभाविक है। तभी ध्रुवस्थापना का होना पाया जाता है। इस धरती में दोनों ध्रुव बिन्दु है। इसीलिए चुम्बकीय धारा का मध्य बिन्दु ध्रुव से ध्रुव तक स्थिर रहना आवश्यक है। इसी ध्रुवतावश ही यह धरती अपने सर्वांगसुन्दर स्वस्थ्यता को बनाए रखने में सक्षम, समृद्घ होने में तत्पर रही ही है। विज्ञान युग के अनन्तर ही सर्वाधिक स्थान पर धरती का पेट फाड़ने का कार्यक्रम सम्पन्न होता आया। इसी क्रम में धरती के मध्य बिन्दु में जो चुम्बकीय धारा ध्रुव रूप में स्थित है वह विचलित होने की स्थिति में यह धरती अपने में से में ही बिखर जाने में देर नहीं लगेगी । इस खतरे के संदर्भ में भी मानव अपने ही कर-कमलों से किये जाने वाले कार्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है। दूसरे प्रकार के खतरे की ओर ध्यान जाना भी आवश्यक है। पहले वाला करतूत से संबंधित है तो दूसरा खतरा परिणाम से है।
इस धरती के मानव अभी तक इस बात को तो पहचान चुके है  कि इस धरती के वातावरण में प्रौद्योगिकी विधि से विसर्जनीय तत्वों के परिणामस्वरूप जल-वायु-धरती प्रदूषित विकृत हो चुकी है। यह होते ही रहेगा। इसी क्रम में धरती के वातावरण में उथल-पुथल पैदा हो चुकी है। यह भी  ज्ञात हो चुका है प्राणरक्षक विरल पदार्थों का, द्रव्यों की क्षति हो रही है। वनस्पति संसार भी सेवन करने में और उसे प्राणवायु के रूप में परिवर्तित करने में अड़चन, अवरोध पैदा होता जा रहा है। इसी क्रम में धरती के वातावरण में स्थित वायुमंडल में विकार पैदा हो चुकी है और ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुकी है। इसका क्षतिपूर्ति अभी जैसा ही मानव संसार रासायनिक उद्योगों के पीछे लाभ के आधार पर पागल है और खनिजतेल और कोयला का उपयोग करने के आधार पर प्रदूषण और धरती का वातावरण में क्षतिपूर्ति की कोई विधि नहीं है। यह भी पता लग चुका है। इसके बावजूद उन्मादवश प्रवाहित होते ही जाना बन रहा है। इस क्रम में एक सम्भावना के रूप में एक खतरा अथवा अवर्णयीय खतरा दिखाई पड़ती है। वह है, इस धरती में जब कभी भी पानी का उदय हुआ है, रासायनिक प्रक्रिया की शुभ बेला ही रही है। पानी बनने के अनन्तर ही यह धरती रासायनिक रचना-विरचना क्रम को बनाए रखने में सक्षम हुई है। यह संयोग ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोग से ही सम्पन्न होना सहज रहा है। इस विधि से समझने पर धरती के वातावरण में जो विरल वस्तु का अभावीकरण हो चुका है या होता जा रहा है, वही विशेषकर ब्रह्माण्डीय किरणों को और सूर्य किरणों को धरती में पचने का रूप प्रदान कर देता है। इसी विधि से ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश पानी का उदय हुआ, वह निकल जाने के उपरान्त अथवा और कुछ वातावरण में विकार के उपरान्त यदि वही ब्रह्माण्डीय किरण, सूर्य किरण पानी में सहज रूप में होने वाली रसायनिक गठन के विपरीत इसे विघटित करने वाली ब्रह्माण्डीय किरणों का प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाए उस स्थिति को रोकने के लिए विज्ञान के पास कौन सा उपहार है ? इसके उत्तर में नहीं-नहीं की ही ध्वनि बनी हुई है। तीसरा खतरा जो कुछ लोगों को पता है, वह है यह धरती गर्म होते जाए, ध्रुव प्रदेशों में संतुलन के लिए बनी हुई बर्फ राशियाँ गलने लग जाए तब क्या करेंगे ? तब विज्ञान का एक ध्वनि इसका उपचार के लिए दबे हुए स्वर से निकलता है- बर्फ बनने वाली बम डाल देंगे । इस ध्वनि के बाद जब प्रश्न बनती है, कब तक डालेंगे ? कितना डालेंगे ? उस स्थिति में अनिश्चयता का शरण लेना बनता है। इन सभी कथा-विश्लेषण समीक्षा का आशय ही है हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है, इस आशय से धरती के सतह में समृद्धि, समाधान, अभय, सह-अस्तित्वपूर्वक जीने की कला को विकसित करना आवश्यक है।  

(संदर्भ: आवर्तनशील अर्थशास्त्र, : संस्करण: 2009,  अध्याय:5, पेज नंबर:166- 172) -
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन बनाम मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) पर आधारित 

प्रणेता- श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी