इस धरती पर ७०० करोड़ आदमियों के मन में कोई भी प्रश्न हों तो उसका उत्तर मेरे पास है. यदि समस्या है तो उसका समाधान है. प्रश्न समस्या ही है. अभी तक मैं उस जगह नहीं पहुंचा जो मुझे कहना पड़े कि इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है.
प्रश्न: आपने साधना किस विधि से किया - इसको कृपया और स्पष्ट करें.
उत्तर: यह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है फिर भी इसका उत्तर इस प्रकार से है.
पतंजलि योग सूत्र में साधना की आठ भूमियों को बताया गया है. ( यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाध्योअष्टावन्गानि [ २९ - साधनपाद, पतंजलि योग सूत्र])
इसमें पहले 'यम' और 'नियम' को बताया है - जो आचरण से सम्बंधित हैं.
उसके बाद 'आसन' और 'प्राणायाम' को बताया है - जो शरीर स्वस्थता से सम्बंधित हैं.
उसके बाद 'प्रत्याहार' में बताया है - मानसिकता में क्या सोचना चाहिए और क्या नहीं सोचना चाहिए. इसमें विरक्ति या असंग्रह विधि से जीने की प्रेरणा है. संग्रह प्रवृत्ति से मुक्ति को बहुत अच्छे से यहाँ समझाया गया है.
उसके बाद है - 'धारणा'. (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा [ १ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र]) जिसका मतलब है - किसी वस्तु या क्षेत्र में हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो सकती हैं. जैसे - एक चित्र के आकार में चित्त वृत्तियाँ निरोध होना. कोई आकार, कोई देवी-देवता, कोई अक्षर, कोई कल्पना ही क्यों न हो, माता, पिता, या स्वयं के शरीर के आकार में चित्त-वृत्तियाँ निरोध हो जाने को हम धारणा कहेंगे.
इसके बाद उसके निश्चित बिंदु में यदि हमारी चित्त-वृत्तियाँ निरोध होती हैं, तो उसको 'ध्यान' नाम दिया. ( तत्रप्रत्येकतानता ध्यानम [२ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])
ध्यान के बिंदु का अर्थ रहे पर उसका स्वरूप न रहे, इस स्थिति का नाम है - 'समाधि'. (तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधिः [३ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र])
इसको आप पतंजलि योग सूत्र में पढेंगे तो आपको वह यथावत मिलेगा.
समाधि में चित्त वृत्ति निरोध होता ही है. चित्त-वृत्ति निरोध होने का मतलब है - हमारी आशा, विचार और इच्छाएं चुप हो जाना. शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं - यह नहीं लिखा है. मैं स्वयं इसको देखा हूँ. आशा, विचार और इच्छा का चुप हो जाना समाधि है. इसके आधार पर ही शास्त्रों/प्राचीन ग्रंथों में लिखा है - मानव जो कुछ भी समझ सकता है, सोच सकता है - समाधि उसके पार की स्थिति है. इस स्थिति में मुझे तो कोई ज्ञान मिला नहीं. जिसको मिला हो, वो बताये! समाधि का कोई गवाही नहीं होता है. अब इसको बताएं तो कोई विश्वास कैसे करेगा? तब 'संयम' की बात आयी.
(त्रयमेकत्र संयमः [४ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र]) एक विषय में तीनो (धारणा, ध्यान और समाधि) का होना संयम कहलाता है.
विभूतिपाद में कई तरह के संयम की चर्चा है. जैसे - (कंठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्ति [३० - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र]) कंठकूप गलग्रंथि और स्वरग्रंथि के बीच के गड्ढे को कहते हैं. उस जगह में संयम करने से भूख और प्यास से मुक्ति हो जाती है. मेरे भूख-प्यास से मुक्त हो जाने से संसार का कौनसा कल्याण हो जाएगा? इससे क्या होने वाला है? ऐसा अन्तःकरण में चर्चा होने पर उसका कोई उत्तर मुझे मिला नहीं.
दूसरा - (नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् [२९ - विभूतिपाद , पतंजलि योग सूत्र]) अर्थात नाभिचक्र में संयम करने से एक ही आदमी अनेक शरीर स्वरूप में व्यक्त हो सकता है. यह सिद्धि किसको चाहिए? जानमारी, सेंधमारी, लूटमारी करने वालों को इसकी ज़रूरत होगी. मेरे लिए इसका क्या प्रयोजन है? मुझे इस सिद्धि का अपने लिए कोई प्रयोजन दिखा नहीं.
इस प्रकार पूरा विभूतिपाद मेरे लिए प्रयोजन का ध्वनि दे नहीं पाया. किसी को इनमे प्रयोजन दिखता हो तो करते रहे!
इसके चलते, संयम में धारणा-ध्यान-समाधि के क्रम को उलटा किया; इस अपेक्षा में कि शायद इससे भिन्न कोई फल निकल आये. इन तीन स्थितियों को एकत्र करने से संयम तो होगा ही, यदि मैं इनका क्रम बदलता हूँ तो शायद इस प्रक्रिया का फल बदल जाए! क्या फल होगा, यह उस समय पता नहीं था.
इसको लेकर मैं चल दिया और मानव के पुण्य से मैं सफल हो गया. क्या सफल हुआ? मानव का अध्ययन हुआ, जीवन का अध्ययन हुआ, अस्तित्व का अध्ययन हुआ. पूरा अस्तित्व अध्ययन होने पर विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति सूत्रों का पता चला. इन चार सूत्रों में यह सारा अध्ययन समाता है. इन चार सूत्रों को फिर वांग्मय स्वरूप दिया. क्यों दिया? पहला - धरती बीमार हो गयी है, शायद इसको समझने में ही धरती की दवाई है. दूसरे - यह उपलब्धि मेरे अकेले की नहीं है, मानव जाति की उपलब्धि है. यह ठीक हुआ या नहीं हुआ - यह आगे विद्वान लोग तय करेंगे.
विगत से जो भी दर्शन उपलब्ध हैं वे रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन के स्वरूप में हैं. रहस्य में ही सारी बात किये हैं. रहस्य मानव का प्रमाण नहीं हो सकता. रहस्य के आधार पर कुछ लिखने के पक्ष में मैं पहले भी नहीं था. संयोग से यह देखने के बाद पता चला - अध्यव्सायिक विधि से समझ में आने वाली बात अभी तक बचा हुआ रहा है. सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति का अध्ययन आवश्यक है. मानव को जागृति पूर्वक जीना है. पूरा दर्शन इस अर्थ में लिखा है. अध्ययन पूर्वक सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ दृष्टा पद में होते हैं, जिसको प्रमाणित करने के क्रम में जागृति होती है.
प्रश्न: आप जो समाधि-संयम पूर्वक अध्ययन किये, उसका स्वरूप क्या था? हम जो अभी कर रहे हैं, उससे वह कैसे भिन्न है?
उत्तर: आप कागज़ में अध्ययन करते हैं, मैंने प्रकृति में अध्ययन किया. अभी जैसे परमाणु, अणु या बैक्टीरिया को देखने के लिए आपको एक लेबोरेटरी चाहिए. इसके बिना आपको वह दीखता नहीं है. मैंने वही वस्तु को सीधा प्रकृति में देखा है - इसमें किसको क्या तकलीफ है? संयम की यही गरिमा है कि मैं इस तरह देख पाया. आप जो सूक्ष्मतम देखने के लिए उपकरणों को प्राप्त किये हैं - चाहे विद्युत् विधि से हो या रेडिएशन विधि से - वे सब मानव की ताकत की आन्शिकता में हैं. सभी लेबोरेटरी मानव के मनाकार का साकार स्वरूप है. मानव अभी अपनी पूर्ण क्षमता को कहीं भी नियोजित कर ही नहीं पाता, आंशिक भाग को ही नियोजित कर पाता है.
स्वयं में मानव का होना-रहना बना ही रहता है. होते-रहते हुए मानव अपनी ताकत को लगाता है. अस्तित्व सहज विधि से होते हुए, किसी विधि से रहते हुए - मानव अपनी जितनी भी मानसिकता को नियोजित करता है, उसी में कोई डिजाईन बनाता है. मनाकार को साकार करने में मानव पूरी तरह नियोजित हुआ नहीं है, बचा ही है.
मानव की सम्पूर्णता समाधान में ही व्यक्त होती है. समाधान ही सुख है, मानव धर्म है.
मानव जाति की सम्पूर्णता समाधान स्वरूप में ही व्यक्त होती है - एक दूसरे के साथ.
तकनीकी विधि से मानव अपनी ताकत का थोडा सा ही परिचय दे पाया है. नाश होने के भाग में मानव बहुत कुछ सुन चुका है, कर चुका है. बचने के बारे में सुन नहीं पा रहा है. नाश होने की घंटी तो बज ही रही है, अब उद्धार होने या बचने की घंटी को भी हिलाया जाए, बजाया जाए! ऐसा मैं कह रहा हूँ. इसको बदलना है तो बताओ!
प्रश्न: मानव ने भ्रमवश धरती को बहुत नुकसान पहुंचाया है. अब जिस गति से मानव जाति इस बात को समझ रही है, उसको देख कर लगता है - कहीं समझ में आने से पहले धरती का नाश ही न हो जाए! इसमें आपका क्या कहना है?
उत्तर: यह कल्पना तो आता ही है. आप कुछ अनुचित नहीं कह रहे हैं. बचने के लिए हम एक प्रयोग ही कर सकते हैं. हमारे पास जो समय शेष है उसमे हम अपराध मुक्त हो सकते हैं. यदि दूसरे ग्रह पर भी जाना है, तो कम से कम वहां जा कर तो अपराध नहीं करेंगे! दूसरे - यदि धरती में शक्तियां अभी भी शेष हैं, तो मानव के सुधरने पर उसके स्वस्थ होने का अवसर बन सकता है. ये दोनों संभावनाओं को लेकर इस दर्शन को प्रस्तुत किया है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, २००८)
साभार- मध्यस्थ दर्शन ब्लॉग (जीवन विद्या - सह अस्तित्व में अध्ययन)
http://madhyasth-darshan.blogspot.in/2017/10/blog-post_21.html
No comments:
Post a Comment