Friday, January 19, 2018

धरती की व्यवस्था बने रहने देने के लिए मानव की भूमिका पर विचार- भाग ३

उत्पादन कार्यों के गति में जो ईंधनों को संयोजित किया जाता है इसमें आवर्तनशीलता को पहचानना अनिवार्य है। इन्हीं में जो कुछ भी अभी समीचीन प्रदूषण का संकट है इसमें मुख्य तत्व कोयला और खनिज तेल से मुक्त ईंधन विधि और प्रकाश विधियों को संजो लेना ही ईंधन सम्बन्धी आवर्तनशीलता का तात्पर्य है। 
इसके मुख्य स्रोत का अधिकांश भाग मानव मानस में आ ही चुका है जैसा सूर्य ऊर्जा, प्रपात बल, हवा का दबाव, प्रवाह शक्ति पर, गोबर कचरा से उत्पन्न ईंधन। इन सभी ओर ध्यान जा ही रहा है कि खनिज कोयला और तेल के बाद क्या करेंगे? 
इसके उत्तर में सोचा गया है। खनिज कोयला और तेल से ही सर्वाधिक प्रदूषण है। इस आधार पर इसकी आवश्यकता धरती को है, इसी आधार पर विकल्प को पहचानने की आवश्यकता है। तब विकल्पात्मक स्रोतों के प्रति निष्ठा स्थापित होना सहज है।
खनिज तेल और कोयला के अतिरिक्त और खतरनाक रूप में जो प्रदूषण आक्रमण कर रहा है वह विकिरणात्मक ईंधन प्रणाली है। ये तीनों धरती पर स्थित अन्न, वनस्पति, जीव और मानव प्रकृति के लिए सर्वाधिक हानिप्रद होना हम समझ चुके हैं। 
इसके बाद भी इन्हीं तीनों प्रकार के ईंधन की ओर सभी देशों का ध्यान आकर्षित रहना अभी तक देखा जा रहा है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है विकल्प की ओर हमारी निष्ठा पूरा स्थापित नहीं हो पा रही है। इसके मूल कारण दो स्वरूप में दिखाई पड़ती है 
(1) हर उत्पादन को स्वचालित बनाने का चक्कर और 
(2) उद्योगों का केन्द्रीयकरण प्रणाली का प्रयास। 
ये दोनों कारण पूँजी निवेश पर आधारित हैं। इसका आधार विशेषज्ञता है। इसी के साथ-साथ जनशक्ति को अर्थात् श्रम शक्ति को खरीदने के क्रम में आ चुकी है। इन्हीं दो उपक्रमों ईंधन विकल्प के प्रति निष्ठा स्थापित करने में, होने में अड़चन बन बैठी है। 
स्वचालित उत्पादन कार्य तंत्र विधि से जितना मानव उत्पादन कार्य में लग रहा था वह कम होता गया। कुछ लोगों को जिन्हें नौकरी मिल जाती है, वे अपने को धन्य मान लेते हैं। बड़े उद्योगों के चलते यह संकट गहराता जाता है। जैसा एक ही प्रकार से शिक्षा ग्रहण किया हुआ एक आदमी को नौकरी मिल जाता है और एक आदमी को नौकरी नहीं मिलता है। नौकरी मिला हुआ अपने को धन्य मानता है, नहीं मिला हुआ अपने को बेकार मानता है, निरर्थक मानता है। ये सभी बातें सभी विद्वानों को पता है। यहाँ उल्लेख करने का यही तात्पर्य है कि इसकी विकल्प विधि को पहचानने की आवश्यकता पर बल देना ही रहा। 
◘ ईंधन कार्य विधि के लिए प्रवाह बल शक्ति को सर्वाधिक रूप में विद्युतीकरण कार्य के लिए उपयोग करना आवश्यक है। प्रपात शक्तियों को उपयोग करने की विधि प्रचलित हो चुकी है। केवल प्रवाह बल का उपयोग विधि को प्रचलित करना अब अति अनिवार्य हो चुकी है। इससे छोटे-बड़े विद्युतीकरण कार्य को संपादित किया जा सकता है। प्रवाह का अपार स्रोत आज भी धरती पर है। अतएव ऐसे स्रोत रहते ही इसका उपयेाग करना प्रदूषण विहीन विद्युत चुम्बकीय ताकत को पाना बन जाता है। 
◘ इस क्रम में सूर्य उष्मा को भी विद्युतीकरण और ताप भट्टियों के लिए प्रयुक्त कर लेना उपयोगी है ही। इस ओर भी हमारा ध्यान लगा है। इसको समृद्ध बनाने की आवश्यकता और लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता है। 
इस क्रियाकलाप में ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार को त्याग देना आवश्यक है। इसे मानव का मानव सहज स्वत्व के रूप में पहचानने की आवश्यकता है क्योंकि एक मानव जो समझ सकता है उसे सभी मानव समझ सकते हैं इस तथ्य पर विश्वास करने की आवश्यकता है। इसी के आधार पर एक व्यक्ति जो पाता है उसे हर व्यक्ति पा सकता है। यह तभी संभव है जब ज्ञान और धर्म व्यापार को सर्वथा मानव त्याग दे और इस व्यापार के स्थान पर जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान यह जीवन जागृति रूपी सहज तथ्यों को लोक व्यापीकरण करने की अनिवार्यता, आवश्यकता को पहचानना।
हर मानव सहज रूप में ही विशेषता, आरक्षण, दलन, दमन जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों से मुक्त हो सकते हैं और मानवीयता देव-दिव्य मानवीयतापूर्ण विधि से इस धरती को सजा सकते हैं।

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय:6, पेज नंबर:223-225)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

धरती की व्यवस्था बने रहने देने के लिए मानव की भूमिका पर विचार- भाग २

पहले इस बात को इंगित कराया है जो ऊर्जा स्रोत विगत के बुद्धिमान पीढ़ी ने अपनाया उसके पक्ष में सम्पूर्ण प्रौद्योगिकी निर्भर हुई। उससे हुई प्रदूषण की पराकाष्ठा। 
अब मुख्य रूप में ऊर्जा सम्बन्धों में सभी आवर्तनशील विकल्पों को अपनाना अनिवार्य है। अभी तक अपनाया हुआ ऊर्जा स्रोतों में से गोबर, कचड़ा गैस, पवन ऊर्जा, और सौर ऊर्जा, प्रपात ऊर्जा (जल विद्युत) यह आवर्तनशील होना स्पष्ट हो चुकी है। जिसके संयोग से जितने भी कार्यकलाप करते हैं उससे कोई प्रदूषण नहीं होता। 
अभी तक जैसा नदी के प्रपात स्थलियों में बिजली प्रवाह प्राप्त करने का यंत्र संयोजनों को सजाया जा चुका है और समुद्र तरंग के बारे में भी प्रयोग शुरू किया गया है। इसी के साथ जल प्रवाह शक्तियों को विद्युत प्रवाह शक्तियों के रूप में पाने का प्रयास करना समीचीन है। यह सर्वाधिक, सभी देशों में समीचीन है। कोई न कोई महत्वपूर्ण नदी सभी समय बहती रहती है। बहाव का दबाव अनुस्यूत रहता है। उतने दबाव से संचालित होने वाली विद्युत संयंत्र को सर्वसुलभ करना आवश्यक है। 
ऐसी तकनीकी को प्राप्त कर शिक्षण पूर्वक लोक व्यापीकरण करना आवश्यक है। विद्युत संयंत्रों का विभिन्न स्तर मानव जाति पा चुकी है। इसलिए प्रवाह तंत्र के अंतर्गत इसे पाना, चित्रित कर लेना, व्यावहारीकरण कर लेना सहज है।
जिस गति प्रौद्योगिकी स्थितियों को पाकर हम अभ्यस्त हो गए हैं, उसमें हर दिशा में गति की ही बात आती है। ऊर्जा गति के लिए संयंत्र को विद्युत चालित, तेल चालित, वाष्प चालित विधियों से संचालित करते हैं। 
विद्युत को प्रवाह शक्तियों से सर्वाधिक रूप में पा सकते हैं। तैलीय यंत्रों के लिए खनिज तेल के स्थान पर वनस्पतिजन्य तेल से चलने वाली यंत्रों की संरचना एक आवश्यक घटना है। इसके लिए मानव विचार कर ही रहा है। इस विधा में दृष्टिपात करने पर वनस्पति तेल से संचालित होने वाले यंत्र इसमें आवर्तनशीलता अपने आप में स्थापित है। 
वनस्पतियाँ पुष्टितत्व के साथ ही हर प्रकार के द्रव्यों का संग्रहण कर सकता है। मानव के लिए आवश्यकीय प्राणवायु को समृद्ध करने के लिए सहायक कार्यकलाप के रूप में अधिकांश वनस्पतियों को देखा जाता है। वनस्पति तेल से संचालित क्रियाकलाप से तैलीय धूम्र, वनस्पति संसार में पाचन योग्य रहता ही है। इसके स्रोत संबध को इस प्रकार समझा गया है कि प्रत्येक कृषक अपने यात्रा कार्य में नियोजित होने वाले तेल का तादात समझना, समझाना संभव है। इसे किसी भी परिवार का यात्रा कार्य एवं कृषि कार्यों के आधार पर आवश्यक तादात को पहचाना जाता है। इस पहचान के आधार पर किसी भी तैलीय बीजों को तैयार कर प्रस्तुत कर सकता है। जैसे नीम, कंजी (करंज), एरण्ड, क्षुद्र एरण्ड इत्यादि। 
यह भी देखा गया है कि हर देश, काल, परिस्थितियों में तैलीय वृक्षों को हर कृषक पहचाना ही रहता है। जहाँ जो चीज प्रचुर मात्रा में रहती है, उसको भी पहचाना रहता है। यह तभी सफल होता है, परिवार मानव और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी हो जाए। तैलीय स्रोत बीज वृक्ष न्याय से नित्य स्रोत होना देखा गया है। यह आवर्तनशील होना नियति सहज है। इससे उत्पन्न धूम्र वनस्पतियों का आहार होना, वनस्पतियों में यह धुआँ पच जाना देखा जाता है। इस विधि से यह भी क्रम से वृक्ष बीज, तेल धूम्र और वृक्षों का आहार, पुन: बीज विधि से आवर्तनशील होना दिखाई पड़ता है। 
ऐसे तैलीय वृक्षों को सड़कों के किनारे आवश्यकतानुसार जंगल में रोपित कर मानव जाति के लिए आवश्यकता से अधिक तैलीय बीजों का संग्रहण करना नित्य समीचीन है। इसमें दो ही बिन्दु प्रधान हैं। धरती का संतुलन और मानव संतुलन प्रधानत: अध्ययन और योजना का आधार बिन्दु हैं। यह तो बहुत स्पष्ट है मानव परम्परा की अक्षुण्णता धरती की संतुलन और स्वस्थता पर निर्भर है।
आवर्तनशील ऊर्जा स्रोत के क्रम में सूर्य उष्मा से विद्युत और उष्मा कार्य-भट्टियों को प्राप्त कर लेना सहज है। सूर्य उष्मा भट्टी के स्वरूप को चूना पत्थर आदि से संबंधित पक्वकारी क्रियाकलापों को सम्पादित करने के लिए चित्रित करना आवश्यक है इसका स्रोत सूर्य का प्रतिबिम्बन को किरण के रूप में प्राप्त करना, वह किरण के साथ उष्मा प्रवाह होना, फलस्वरूप रुई, लकड़ी आदि वस्तुओं में आग लगने वाली क्रिया के रूप में देखा जा सकता है। इस प्रयोग के आधार पर अर्ध गोलाकार भट्टी के रूप में रचना किया जा सकता है इसमें उत्पन्न अथवा इसमें अर्जित उष्मा से भट्टी से बनी हुए सभी वस्तुयें और चूना पत्थर पकना सहज है। यह भी आवर्तनशील विधि से व्यवस्था में प्रमाणित हो जाता है। क्योंकि सूर्य उष्मा का परावर्तन सूर्य बिंब अपने में स्वभावगति को प्राप्त करने के क्रम में होना पाया जाता है। सूर्य बिंब आज की स्थिति में आवेशित गति में होने के फलस्वरूप उष्मा का परावर्तन भावी है। परावर्तित सभी उष्मा विभिन्न ग्रह-गोलों में पच जाना पाया जाता है। इस क्रम में पचाया हुआ भी स्वभाव गति में होना और स्वभावगति में आने के लिए उन्मुख है। उसके लिए सह-अस्तित्व व सहज व्यवस्था मार्ग प्रशस्त होना समझ में आता है। इसी प्रकार धरती सौर व्यूह, अनंत सौर व्यूह, ब्रह्मांडीय किरण स्वभाव गति रूप में सह अस्तित्वकारी गतिविधि कार्यकलाप करता हुआ समझ में आता है।

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर:66- 71)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

धरती की व्यवस्था बने रहने देने के लिए मानव की भूमिका पर विचार- भाग १

जैसा हम पिछले पोस्ट से समझ चुके हैं कि सभी चार अवस्थाओं के बने रहने के लिए धरती की व्यवस्था बने रहना कितना आवश्यक है। सभी 4 अवस्थाओं (पदार्थ, प्राण,जीव व ज्ञान/मानव) में मानव ही है जो नासमझी में ऐसे कार्य कर रहा है जो उसके साथ ही बाकी तीन अवस्थाओं के अस्तित्व के लिए भी खतरा बन चुका है।
ऐसे में मानव को "स्वयं को", "अस्तित्व" को व "मानवीयता पूर्ण आचरण" को समझने के अलावा और क्या कदम उठाने की आवश्यकता है इस पर आइये श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी (प्रणेता- मध्यस्थ दर्शन, सह अस्तित्ववाद)  द्वारा सुझाए गए कुछ विकल्पों को एक बार देखने व समझने का प्रयास करते हैं ।
**********************

"धरती असंतुलन=> उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है।
दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना। यह विकल्प स्वभाविक रूप में दिखाई पड़ता है - प्रवाह बल को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर लेना। इस अकेले स्रोत के प्रावधान से, प्रदूषण रहित प्रणाली से, विद्युत ऊर्जा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो सकती है।
इसी के साथ समृद्ध होने के लिए हवा का दबाव, समुद्र तरंगों का दबाव, गोबर गैस, प्राकृतिक गैस जो स्वभाविक रूप में धरती के भीतर से आकाश की ओर गमन करती रहती है, ऐसे सभी स्रोतों का भरपूर उपयोग करना मानव के हित में है, मानव के सुख समृद्धि के अर्थ में है।
कुछ ऐसे यंत्र जो तेल से ही चलने वाले हैं, उनके लिए खाद्य, अखाद्य तेलों (वनस्पति, पेड़ों से प्राप्त) को विभिन्न संयोगों से यंत्रोपयोगी बनाने के शोध को पूरा कर लेना चाहिए। तभी मानव यंत्रों से प्राप्त सुविधाओं को बनाये भी रख सकता है। ईंधन समृद्धि बना रह सकता है।
तैलीय प्रयोजनों के लिए जंगलों में तैलीय वृक्षों का प्रवर्तन किया जाना संभव है ही, सड़क, बाग बगीचों में भी यह हो सकता है। किसानों के खेत के मेंड़ पर भी हो सकता है, यह केवल मानव में सद्बुद्धि के आधार पर संपन्न होने वाला कार्यक्रम है।
धरती के ऊपरी सतह में विशाल संभावनायें है, ऊर्जा स्रोत बनाने की, ईंधन स्रोत बनाने की। दबाव स्रोत, प्रवाह स्रोत, सौर्य ऊर्जा स्रोत, ये सब स्वभाविक रूप में प्रचुर मात्रा में हैं ही। इनके साथ ही तैलीय वृक्षों के विपुलीकरण की संभावना धरती पर ही है। धरती के भीतर ऐसा कुछ भी स्रोत नहीं है। जो है केवल धरती को स्वस्थ रखने के लिए है।
यदि सही परीक्षण, निरीक्षण करें तो धरती के सतह पर ही संपूर्ण सौभाग्य स्रोत है। धरती के भीतर, ऊपरी हिस्से के समान या सदृश्य कोई स्रोत दिखाई नहीं पड़ती।

(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय:3-7, पेज नंबर:85-91)

◘ जल प्रवाह बल को हम उपयोग करें न करें, प्रवाह तो हर देश काल में बना ही रहता है। ऋतु संतुलन की सटीकता, इन नदियों के अविरल धारा का स्रोत होना ही समझदार मानव को स्वीकार होता है। इसी के साथ वन, खनिज का अनुपात धरती पर कितना होना चाहिए, इसका भी ध्यान सुस्पष्ट होता है।
इसमें ध्यान देने का बिन्दु यही है कि हर देश में विभिन्न स्थितियाँ बनी हुई हैं। हर विभिन्नता में वहाँ का ऋतु संतुलन अपने आप में सुस्पष्ट रहता ही है।
विकल्प विधियों में अर्थात् प्रदूषण मुक्त विधि से हम विद्युत को जितना पा रहे हैं, उससे अधिक प्राप्त कर लेना आवश्यक है, ऐसे विद्युत से सड़क में चलने वाली जितनी भी गाड़ियाँ हैं, उसके लिए बैटरी विधि से विद्युत को संजो लेने की आवश्यकता है। जिससे छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी गाड़ी चल सके। उसकी उपलब्धि जैसा खनिज तेल उपलब्ध होता है, ऐसा हो सकता है। इसे हर समझदार व्यक्ति स्वीकार कर सकता है।
जहाँ तक खेत में चलने वाली गाड़ी, हवा में चलने वाली गाड़ी की बात है, उसके लिए वनस्पति तेल को योग्य बनाकर उपयोग करेंगे। जल पर चलने वाले जहाजों के लिए वनस्पति तेल अथवा सूर्य ऊर्जा और बैट्री विधि तीनों को अपनाये रखेंगे।
इस क्रम में मानव का मन सज जाये, मानव एक बार ताकत लगाये तो प्रौद्योगिकी संसार अर्थात् प्रवाह बल के साथ जूझते मानव जाति से प्रकृति के साथ होने वाले पाप कर्म, अपराध कर्म रुक सकते हैं।

(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय: 3 - 13, पेज नंबर: 135)

जल प्रदूषण=> जहाँ तक जल प्रदूषण की बात है, उसका सुधार संभव है, क्योंकि हर दूषित मल, प्रौद्योगिकी विसर्जनों को विविध संयोग प्रक्रिया से खाद के रूप में अथवा आवासादि कार्यों में लेने योग्य वस्तुओं के रूप में परिणित कर सकते हैं, ऐसे परिणित के लिए सभी प्रकार से - मनुष्य से, प्रौद्योगिकी विधि से, संपूर्ण विसर्जन को अपने-अपने स्थानों में ही कहीं, धरती के गहरे गढ्ढों में संग्रहित करने की आवश्यकता बनती है, उसके बाद ही इसका विनियोजन संभव हो जायेगा।

वायु प्रदूषण=> जहाँ तक वायु प्रदूषण है, इसका निराकरण तत्काल ही खनिज कोयला और तेल के प्रति चढ़े पागलपन को छोड़ना पड़ेगा। इसका सहज उपाय विकल्पात्मक ऊर्जा स्रोतों को पहचानना जिससे प्रदूषण न होता हो। ऐसा ऊर्जा स्रोत स्वाभाविक रूप में यही धरती प्रावधानित कर रखी है।
◘ जैसे वायु बल, प्रवाह बल, सूर्य ऊष्मा और गोबर-कचड़ा गैस। यह सब आवर्तनशील विधि से उपकार कार्य के रूप में नियोजित होते हैं।
◘ जैसा सूर्य ऊष्मा से ईंटा पत्थर को पकाने की भट्टियों को बना लेने से वह पक भी जाता है और उससे प्रदूषण की कोई सम्भावना भी नहीं रहती।
◘ प्रवाह दबाव कई नदी-नालों में मानव को उपलब्ध है जैसा ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना नदियाँ जहाँ सर्वाधिक दबाव से बह पाती हैं, ऐसे स्थलों में प्रत्येक 20-25 मीटर की दूरी में बराबर उसके दबाव को निश्चित वर्तुल गतिगामी प्रक्रिया से विद्युत ऊर्जा को उपार्जित कर सकते हैं। इस विधि से सर्वाधिक देश में आवश्यकता से अधिक विद्युत शक्ति के रूप में संभावित है।

अभी तक बनी हुई प्रदूषण का कारण केवल ईंधन संयोजन विधि में दूरदर्शिता प्रज्ञा का अभाव ही रहा है। अतएव, गलती एवं अपराधों का सुधार करना, कराना, करने के लिए सम्मति देना हर मनुष्य में समायी हुई सौजन्यता है।

"पहले इस बात को स्पष्ट किया है कि मानव अपने को विविध समुदायों में परस्पर विरोधाभासी क्रम में पहचान कर लेने का अभिशाप ही इन सभी विकृतियों का कारण रहा है मूलत: इसी का निराकरण और समाधान अति अनिवार्य हो गया है। क्योंकि शोषण, द्रोह, विद्रोह और युद्ध को हम अपनाते हुए किसी भी विधि से वर्तमान में विश्वस्त हो नहीं पायेंगे बल्कि भय, कुशंका, दरिद्रता, दीनता, हीनता, क्रूरता मंडराते ही रहेंगे। इस सबके चुंगल से छूटना ही मूलत: विपदाओं से बचने का उपाय है।"
(व्यवहारवादी समाजशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर: 57-59)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

धरती, मानव और प्रदूषण

धरती में बढ़ते प्रदूषण का एक और कारण है और वह है ई वेस्ट यानि की आपके घर के मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक सामान, कंप्यूटर, लेपटॉप, चार्जर, बैटरी इत्यादि। 
हमने चीजें बनानी और चलानी तो सीख ली हैं पर इसके खराब होने पर हमें इसका निष्पादन सही ढंग से कैसे करना है इसके बारे में न तो कोई निर्माता (इन सब चीजों का उत्पादन करने वाला) गंभीर है और ना ही हम।
अगर कोई व्यवस्था होती तो हम उस ओर जरूर कदम भी उठाते पर अभी तक कोई गंभीर पहल नहीं हुई है।
बाज़ार में हर दिन एक नया मॉडल चाहे वह मोबाइल, लैपटाप, टीवी का हो या गाड़ियों का सभी का सिर्फ एक ही उद्देश्य है कि कैसे उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करें और धन (प्रतीक मुद्रा ) कमाए। 
इसके लिए पुराने मॉडल को हटा दिया जाता है या उसमें ऐसा परिवर्तन कर दिया जाता है कि हमें नया खरीदना ही पड़ता है।जैसे सिम कार्ड के जगह में थोड़ा परिवर्तन, बैटरी अलग प्रकार की, चार्जर का अलग अलग प्रकार। इसके लिए आप एक वीडियो देख सकते हैं "story of stuff (चीजों की कहानी)" https://www.youtube.com/watch?v=j_n39kTwpu0 
जबकि पुराने मॉडल को आसानी से सुधार कर चलाया जा सकता था। पर बाज़ार को इन सबसे क्या लेना देना। धरती की सुरक्षा से तो उनको कोई लेना देना ही नहीं है। हर बार एक नए मॉडल के लिए धरती के संसाधन का शोषण होता है और जब हम इन्हें कूड़े के रूप में फेंकते हैं तो इनमें प्रयोग किया गया खतरनाक रसायन जैसे पारा आदि मिट्टी, वायु व जल को प्रदूषित करता है।

अब देखते हैं इन कंपनियों में काम करने वाले लोगों को...चूंकि हमारी शिक्षा पद्धति हमारी पीढ़ियों को इसी बात के लिए तैयार करती है कि वे कैसे मल्टीनेशनल कंपनियों के काम आ सके तो वे बजाय इस धरती में सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी के मल्टीनेशनल कंपनियों के ही गुलाम बने रहते हैं। 
तो अब इन वर्तमान शिक्षा से शिक्षितों (साक्षर) के पास इन उत्पादन (इलेक्ट्रॉनिक्स/ मशीनरी आदि) के सिवाय और कोई रास्ता नहीं होता। 
अगर इन्हें/हमें स्वायत्त होने की मानवीयता पूर्ण शिक्षा मिली होती तो यह स्थिति तो कभी नहीं आती। 
तब स्थिति कुछ ऐसी होती - कंपनियाँ आवश्यकता के हिसाब से उच्च गुणवत्ता वाले सामान बनाती ताकि वह बहुत अधिक दिनों तक चले और धरती सुरक्षित रहे। जो पार्ट्स खराब हो जाते उसमें सुधार करती। हमें पूरे सामान को फेंकने की आवश्यकता नहीं होती।
बाकी बचे समय में कंपनी में स्वस्फूर्त भागीदारी करने वाले लोग अन्य आयामों जैसे स्वास्थ्य-संयम, शिक्षा संस्कार, उत्पादन – कार्य (श्रम पूर्वक- खेती, गौपालन, कुटीर उद्योग/समृद्धि हेतु/आवर्तनशील पद्धति से), विनिमय-कोष (समृद्धि हेतु) और न्याय- सुरक्षा (उभयतृप्ति, अभय हेतु) में भागीदारी करते दिखाई पड़ते।
इस प्रकार इन सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान में शिक्षा के मानवीयकरण की कितनी अधिक आवश्यकता है। इस प्रकार की शिक्षा से हम स्वयं का, इस पीढ़ी का व आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रख पाएंगे। प्रकृति (मनुष्येत्तर प्रकृति) व इंसानों के साथ बेहतर तालमेल के साथ जी पाएंगे।
साथ ही समझदारी पूर्वक उठाए गए कदम से हमारी धरती की व्यवस्था बनी रहेगी। एक व्यवस्थित धरती में ही चारों अवस्थाओं (पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान/मानव)का वैभव संभव है।

धरती- भाग ४

“...एक प्रमुख नियम है कि बल और शक्ति अविभाज्य है। बल ही गुणी एवं शक्ति ही गुण है। इस आधार पर हर शक्ति के मूल में बल होना आवश्यक हैं। इसलिए शक्ति और बल के सह-अस्तित्व को स्वीकारते हुए सोचने पर अस्तित्व वैभव को समझना संभव हो जाता है। 
शून्य आकर्षण की स्थिति में प्रत्येक एक अपने स्थिति-गति के अनुसार, अक्षुण्ण हो जाता है। यह स्थिति-गति की निरंतरता सामरस्यता सिद्धांत है। इसे इस धरती, सूर्य, ग्रह-गोलों की स्थितियों को देखते हुए समझ सकते हैं। यह धरती अपनी स्थिति में, गति में अक्षुण्ण हैं। इसीलिए इसका स्वभाव गति में होना प्रमाणित हैं। 
इन्हीं ग्रह-गोल, नक्षत्रों को देखने पर यह भी पता लगता हैं कि यह सब शून्य आकर्षण में हैं। शून्य आकर्षण में होने का फल यही है कि स्वभाव गति रूप में, स्वभाव गति स्थिति अक्षुण्ण रहे आया। शून्य आकर्षण में होना, स्वभाव गति प्रतिष्ठा है, इसका प्रमाण यह धरती स्वयं प्रकाशित है। 
इसी क्रम में और तथ्य मिलता हैं कि शून्य आकर्षण की स्थिति में, प्रत्येक ग्रह गोल में समाहित सम्पूर्ण वस्तुएँ, उसी ग्रह गोल के वातावरण सीमा में ही रहते हैं, चाहे वे वस्तुएँ स्वभाव गति में हो या आवेशित गति में। इसका प्रमाण सूर्य को देखने पर मिलता है। सूर्य में संपूर्ण वस्तुएँ विरल अवस्था में होना दिखाई पड़ता है। कोई ग्रह-गोल में स्थित वस्तु, यदि आवेशित हो सकता है, तो सूर्य में वस्तु जितना आवेशित है, उतना हो सकता है। इसके बावजूद सूर्य अपनी सम्पूर्ण मात्रा (संपूर्ण वस्तु) सहित ही कार्यरत है।
स्वयं में ग्रह-गोलों में निहित वस्तुओं के आवेशित होने के कारणों की ओर ध्यान देंगे। प्रत्येक ग्रह-गोल में, जैसे इस धरती में किसी तादाद तक विकिरणीय द्रव्यों के रहते, सभी अवस्थाओं का संतुलित रहना पाया जा रहा है। संतुलन का तात्पर्य सभी अवस्थाओं की वर्तमानता से हैं, अथवा चारों अवस्थाओं को वर्तमान होने से हैं और इनके अंतर्संबंधों में सह-अस्तित्व रूपी प्रमाण के वैभव से हैं। 
यह भी मानव के सम्मुख स्पष्ट है कि चरम तप्त अर्थात् सर्वाधिक तप्त स्थिति में सूर्य की गणना की जा चुकी हैं। सूर्य में होने वाले ताप का परावर्तन, इस धरती में पहुँचना देखा जा रहा हैं। सूर्य (के) सहज बिंब के प्रतिबिंब, अनुबिम्ब और प्रत्यानुबिम्ब को प्रकाश के रूप में देखा जा रहा है।
धरती की सतह के नीचे स्थित और पूरकता विधि से कार्यरत इन विकिरणीय द्रव्यों को भ्रमित मानव धरती की सतह पर लाकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। इससे नाभकीय सहज मध्यस्थ क्रिया (मध्यस्थ बल और शक्ति) आवेशित अंशों को संतुलित करने में असमर्थ हो जाते है एवं विस्फोट हो जाता है। अजीर्ण परमाणु अपने स्वरूप में विकिरणीय होना पाया जाता है। विकिरणीय द्रव्य की परिभाषा ही हैं कि विकिरणीय परमाणुओं में परमाणु सहज ऊष्मा अथवा अग्नि अंतर्नियोजित होने लगती हैं। इस सूत्र से भी यह स्पष्ट होता है कि आवेशित (हस्तक्षेपित) स्थिति में अंतर्नियोजित ऊष्मा का दबाव इतना अधिक हो जावे कि जिससे नाभिकीय द्रव्य विस्फोटक स्थिति में पहुँचे।
यह अब तर्क संगत लगता हैं कि सूर्य में सर्वाधिक अजीर्ण परमाणु में आवेश तैयार हो गए। फलस्वरूप नाभिकीय विस्फोट होने लगा। उसका प्रभाव विस्फोट का आधार बना। इस ढंग से सूर्य में समाहित सभी द्रव्य, विस्फोट कार्य में व्यस्त हो गए। इसके पक्ष में आज के चोटी के विज्ञानी, इस धरती पर कहते हुए पाये गये हैं कि अभी जितना नाभिकीय विस्फोटक बनाम एटम बम आकाश में, धरती में और समुद्र में रखे गये हैं, उन में यदि विस्फोट हो जाएँ तब क्रमिक रूप में प्रत्येक परमाणु के नाभिकीय विस्फोट की स्थिति आ जाएगी।


एक और तरीके से कल्पना किया जा सकता है, इस धरती में ये विज्ञानी, नाभिकीय विस्फोट सिद्घांत को अच्छी तरह समझ गये हैं। उसका विस्फोट करने में पारंगत भी हो गए हैं, और उसके लिए तैयारी भी कर लिये हैं। इतना तो अपना जीता-जागता, देखा-भाला तथ्य हैं। अस्तु, सूर्य में स्वाभाविक रूप में, इस धरती के जैसे ही चारों अवस्थाओं का विकास हो चुका रहा हो। इस धरती में जैसा विज्ञानी अपनी महिमा वश, इस धरती को सूर्य जैसा बदलने के सारे उपाय कर लिये हैं, वैसे ही सूर्य में भी ऐसी तैयारी, विज्ञानी लोग किये हों? अभी यहाँ यह प्रयोग सिद्घ नहीं हुआ है। वहाँ यदि प्रयोग सिद्घ हो गया, तब उस स्थिति में यह कह सकते है कि श्रेष्ठतम विज्ञानी ही ऐसे कार्यों को संपन्न किये हो।

* (स्रोत- समाधानात्मक भौतिकवाद, सं.- 2009, अध्याय:9(7), पेज नंबर: 269-272)
* अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
* प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी
* चित्र- साभार गूगल
================
(नोट- कृपया माने नहीं तर्क संगत विधि से विचार करने का प्रयास करें....)

धरती -भाग ३

"पर्यावरण समस्या का मूल तत्व खनिज तेल व कोयला ही है। इसके विकल्प के रूप में सूर्य-उष्मा, प्रवाह-बल की उपयोगिता विधि व उसके लोकव्यापीकरण की आवश्यकता है। इसी से जल, थल व वायु प्रदूषण निवारण होना सुस्पष्ट है। 
भूकम्प और बाढ़ जनित भय का निराकरण, बाढ़ की सीमायें व भूकम्प की निश्चित दिशा में मानव को पहचानने में आता है, उसी के आधार पर इसका निराकरण होता है। जब से धरती के साथ अपराध अर्थात धरती के भीतर की चीजों का अपहरण करने के लिए या शोषण करने के लिए प्रयत्न किया है, तब से धरती की भूकम्प सम्बन्धी दिशायें विचलित हुई हैं। यह भी मानव को पता है। धरती के साथ अपराध बन्द करने पर धरती अपनी निश्चित विधि से ही अपने सौभाग्य को बनाये रखने में सक्षम है। अतएव धरती के साथ अपराध करने की स्वीकृतियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता, इसके लिए भरपूर समझदारी की आवश्यकता है। 
धरती का तापक्रम बढ़ना परिणामत: समुद्र में जलस्तर बढ़ना। अत: यह सुस्पष्ट है कि धरती में निहित खनिज, तेल एवं कोयला ही ताप पचाने के द्रव्य हैं। 
अतएव इन द्रव्यों का शोषण न किया जाए, तभी संतुलन की स्थिति आना संभव है। चक्रवात व तूफान भी अपने निश्चित दिशा व स्थान में आना पाया जाता है। इससे बचकर मानव सुखपूर्वक पीढ़ी-दर-पीढ़ी धरती पर बने रह सकता है। 
अतएव शिक्षा की परिपूर्णता मानव परम्परा में प्रमुख मुद्दा है।"

(मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान, संस्करण:2008, अध्याय:5-5.1, पेज नंबर:81-82)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

धरती - भाग २

"आवर्तनशील अर्थशास्त्र - ऊर्जा 
अभी तक ऊर्जा सम्पादन कार्य को धरती के पेट में समायी हुई खनिज तेल और खनिज कोयला, विकरणीय धातुओं को ऊर्जा सर्वाधिक स्रोत का लक्ष्य बनाया। धरती अपने में संतुलित रहने के लिए कोयला और खनिज तेल धरती के पेट में ही समाया रहना आवश्यक रहा। इसका गवाही यही है कि यह धरती पर मानव अवतरित होने के पहले तक, यही धरती इन दोनों वस्तुओं को अपने पेट में समा ली थी। इसे पहले विज्ञानी भी पहचान सकते थे। ऐसा घटित नहीं हुआ। यही मूलत: वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ धरती के साथ भी दुर्घटना को घटित करने का प्रयास भले ही अज्ञानवश हुआ हो यह घटना की विकरालता थोड़ा सा भी जागृत हुए मानव को दिखाई पड़ती है। 
धरती अपने में सम्पूर्ण प्रकार की भौतिक, रासायनिक सम्पदा से परिपूर्ण होने के उपरांत ही इस धरती पर जीव संसार और मानव संसार बसी। 
जीव संसार तक ही सभी क्रम अपने में पूरक विधि से संतुलित रहना पाया जाता है। मानव ही एक ऐसा वस्तु है, अपने कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रतावश भ्रमित होने के कारण ही धरती में अपना वैभव को प्रकाशित करने का जो स्वरूप रहा है उसे हस्तक्षेप करने का सभी प्रयास मानव के लिए एक हाफा-दाफी का कारण बन चुकी है। 
पर्यावरण में प्रदूषण अपने चरमोत्कर्ष स्थिति में पहुँचने के उपरांत सभी देश यही सोचते हैं प्रदूषण का विपदा अथवा प्रदूषण से उत्पन्न विपदाएं अपने-अपने देश में प्रभावित न हो, जबकि प्रदूषण का प्रभाव इस धरती के सभी ओर फैली ही रहती है। 
इसका साक्ष्य है इस धरती के ऊपरी भाग में बनी हुई रक्षा कवच। अर्थात् इस धरती की ओर आने वाली सूर्य ताप को यह धरती स्वयं पचाने योग्य परावर्तन विधि और प्रणालीबद्ध करता रहा है। वह धरती के सभी ओर से विलय होता हुआ आधुनिक उपकरणों से भी देखा गया है। जिसको विज्ञान की भाषा में ओजोन का नाम बताया करते हैं। यह भी वैज्ञानिक मापदण्डों से पता लग चुका है कि यह धरती का ताप किसी न किसी अंश में बढ़ना शुरू कर दिया है। इसका गवाही के रूप में समुद्र का जल किसी मात्रा में बढ़ता हुआ पहचाना गया है। इसी के साथ यह भी पहचाना गया है कि धरती में ताप बढ़ने पर ध्रुव प्रदेशों में जमा हुआ बर्फ पिघल सकता है। यदि पिघल जाए तब धरती अपने में जितना विशाल क्षेत्र को पानी से रिक्त बनाए रखा है, उनमें से सर्वधिक भाग जल मग्न होने की संभावना पर ध्यानाकर्षण कराया जा चुका है। 
यहाँ उल्लेखनीय घटना यही है। विज्ञानी ही खनिज तेल और कोयला को निकालने के लिए यांत्रिक प्रोत्साहन किए और उसी से प्रदूषण सर्वाधिक रूप में होना स्वीकारे । इसके पश्चात भी उन खनिज तेल और कोयले की ओर से अपना ध्यान नहीं हटा पा रहे हैं। 
यहाँ पर प्रदूषण और ताप संबंधी दो तलवार मानव जाति पर लटकी ही हुई है। यह सर्वविदित तथ्य है। तीसरे प्रकार से सोचा जाए कि यह विज्ञान व विवेकमान्य तथ्य है कि इस धरती पर जल जैसी रसायन निश्चित तादात तक गठित होने की व्यवस्था रहा है। इसका कारण स्त्रोत को ब्रह्माण्डिय किरणों का ही पूरक कार्य के रूप में समझ सकते हैं। 
इसका उदाहरण रूप में अभी-अभी चंद्रमा रूपी ग्रह पर आदमी जाकर लौटा है और वहाँ पानी न होने की बात कही गई है। वहाँ पानी गठित होने के लिए अब दो कारण दिखाई पड़ती है। एक तो मानव इस धरती से जाकर जल रूपी रासायनिक गठन क्रिया को आरंभ कराएं अथवा ब्रह्माडीय किरणों के पूरकता वश गठित हो जावे। इन आशयों को हृदयंगम करने के उपरांत जिस विधि से ब्रह्मांडीय किरणों के संयोग से जल बना ठीक इसके विपरीत यदि पानी वियोगित होने लगे तो धरती पानी विहीन हो जाएगी। और इसी क्रम में ब्रह्मांडीय किरण इस धरती में स्थित विकिरण परमाणुओं के संयोग से यदि परमाणु अपने मध्यांशों को उसके सम्पूर्ण गठन के विस्फोट के लिए तैयार हो जाता है और प्रजाति के सभी परमाणु विस्फोटित हो जाते हैं, तब क्या इस धरती के सभी प्रजाति के परमाणु स्वयं स्फूर्त विस्फोट प्रणाली में आहत नहीं हो जाएंगे ? इसके लिए अनुकूल परिस्थिति को बनाने के लिए मानव ने क्या अभी तक कुछ भी नहीं किया है? ये सब मानव सहज परिकल्पनाएँ उभर आती हैं। हमारा कामना ऐसा कोई दुर्घटना न हो, उसी संदर्भ में यह पूरा सवाल है।
बीती गुजरी वैज्ञानिक प्रयासों का जो कुछ भी परिणाम धरती पर असर किया है और धरती के वातावण में असर किया है, यही असर आगे और बढ़ने पर स्वाभाविक रूप में यह धरती जिस विधि से समृद्ध हुई उसके विपरीत विधि स्थापित हो सकता है। क्योंकि विकास भी नियम से होता है, ह्रास भी नियम से होता है।"

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर:66- 71)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

धरती- भाग १

आज समूची मानव जाति धरती के बिगड़ते पर्यावरण से चिंतित नजर आ रही है मानव जाति के कुछ कार्य अनजाने में ही मानव जाति के लिए ही खतरा पैदा कर चुके हैं और उसे अब तक जारी रखे हुए हैं। इसी विषय पर शोध के दौरान कुछ संदर्भ "मध्यस्थ दर्शन/ सह-अस्तित्ववाद" से प्राप्त हुए जिसे मैं यहाँ साझा कर रही हूँ ताकि हम इस विषय पर कुछ तर्क संगत ढंग से विचार कर एक रास्ता निकाल सकें। और यह एक विकल्प के रूप में लोगों के सामने आए।
                                                 ***********************   


"धरती आज जिस शक्ल में दिखाई पड़ रही है, उसमें से खनिज तेल और कोयला धरती से बाहर कर दिया गया। 
धरती को एक अपने ढंग से क्रियाशील, स्वचालित वस्तु के रूप में पहचानने के उपरान्त यह समझ में आता है कि यही धरती इस सौर व्यूह में एक मात्र वैभवपूर्ण स्थिति में है क्योंकि इसी धरती पर पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था व ज्ञानावस्था चारों अवस्थायें प्रगट हो चुकी हैं।

इसमें से ज्ञानावस्था के मानव ही इस धरती का पेट फाड़ने के कार्यक्रम को प्रस्तुत किया है। इसके सामान्य दुष्परिणाम भी आने लगे हैं जैसे - जल, वायु और धरती में प्रदूषण।

◘ प्रदूषण का तात्पर्य असंतुलन से ही है। असंतुलन का स्पष्ट रूप अथवा चिन्हित रूप धरती सहज उर्वरकता का घट जाना अथवा उर्वरकता कम होना, लुप्त हो जाना, इसके स्थान पर अम्लीय, क्षारीय और रासायनिक धूलि धूसरित होने के आधारों पर धरती में असंतुलन उर्वरकता प्रणाली को अनुर्वरकता में बदलते हुए देखने को मिलता है। यही धरती का असंतुलन है, एक विधि से।

◘ दूसरे विधि से धरती का असंतुलन इसका वातावरण में परिवर्तन जिसका क्षतिपूर्ति अभी मानव के हौसले के अनुसार दिखायी नहीं पड़ती। यह धरती के वातावरण सहज विरल वस्तुओं का कवच सभी ओर दिखायी पड़ती है, इसमें जितना ऊँचाई सभी ओर फैली हुई है, वह अपने आप में कम होना स्वीकारा गया है। मुख्य रूप में सूर्य किरणों (ताप और वस्तु का संयोग का प्रतिबिम्बन) असंतुलन कार्य प्रभावों को सामान्य बनाने का कार्य, यही कवच, जो आज लुप्त हो गया अथवा होने वाला है, से होता रहा है। अब इस कवच का तिरोभाव होने से धरती का ताप बढ़ना शुरू हो गया आंकलित हो चुका है। धरती के ताप बढ़ने का तात्पर्य है धरती बुखार से ग्रसित हो गयी है। आदमी के शरीर में होने वाले बुखार की दवाई (फिर बुखार न हो ऐसी दवाई) अभी तक तैयार नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में धरती के बुखार की दवा कौन बनायेगा। यह एक अलंकारिक प्रश्न रूप है। साथ ही इस प्रश्न चिन्ह के मूल में मानव का ही करतूत है, यंत्र प्रमाण की ही विकरालता है। इसके आगे ताप बढ़ते-बढ़ते इसे 4 " डिग्री बढ़ने के उपरान्त इस धरती के ध्रुव प्रदेश में धरती अपने संतुलन के लिए संग्रहित बर्फ पिघलने का अनुमान बन चुकी है। फलस्वरूप समुद्र की सतह सैकड़ों फीट बढ़कर पानी धरती को अपने अंतराल में छुपा सकता है, उस स्थिति में मानव परम्परा रहेगी कहाँ, सोचना पड़ेगा। यह एक विपदा की स्थिति स्पष्ट हो चुकी है।

ऐसा भी कल्पना किया जा सकता है कि इस धरती पर प्रथम बूंद पानी का घटना ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश ही संभव हो पायी है, इसी के चलते ताप किरण पाचन विधि से मुक्त, अर्थात् धरती में पचने की विधि से मुक्त प्रवेश होना संभव हो गया है। पानी के बूँद के मूल में विभिन्न भौतिक तत्वों का अनुपातीय मिलन विधि है, वह विच्छेद होने का बाध्यता बन जाये; उस स्थिति में कौन इसे रोक पायेगा।

Image may contain: 1 person, text and closeup

◘ तीसरी परिकल्पना और बुद्धिमान व्यक्ति कर सकता है कि इस धरती के दो ध्रुवों की परस्परता में निरंतर एक चुंबकीय धारा बनी हुई है, ऐसी चुम्बकीय धारा को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस धरती की गति स्वयं में व्यवस्था के रूप में और समग्र में (सौर व्यूह में) भागीदारी के रूप में प्रमाणित है। इससे चुम्बकीय धारा की स्थिरता, दृढ़ता बने रहने की व्यवस्था है। अभी जैसे धरती का पेट फाड़ दिया गया है अगर यह असंतुलित हुई तब कौन सी नस्ल व रंग वाला मानव इसे सुधारेगा और जात, सम्प्रदाय, मत, पंथ वाला कौन ऐसा व्यक्ति है जो इसे सुधार पायेगा। इन्हीं सबकी परस्परता में हुए विरोध, विद्रोह, युद्ध ही इस धरती के पेट फाड़ने की आवश्यकता को निर्मित किया है, यह भी ऐतिहासिक घटनाओं से स्पष्ट है।"

(व्यवहारवादी समाजशास्त्र, अध्याय:3, पेज नंबर: 55-57)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी