जैसा हम पिछले पोस्ट से समझ चुके हैं कि सभी चार अवस्थाओं के बने रहने के लिए धरती की व्यवस्था बने रहना कितना आवश्यक है। सभी 4 अवस्थाओं (पदार्थ, प्राण,जीव व ज्ञान/मानव) में मानव ही है जो नासमझी में ऐसे कार्य कर रहा है जो उसके साथ ही बाकी तीन अवस्थाओं के अस्तित्व के लिए भी खतरा बन चुका है।
ऐसे में मानव को "स्वयं को", "अस्तित्व" को व "मानवीयता पूर्ण आचरण" को समझने के अलावा और क्या कदम उठाने की आवश्यकता है इस पर आइये श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी (प्रणेता- मध्यस्थ दर्शन, सह अस्तित्ववाद) द्वारा सुझाए गए कुछ विकल्पों को एक बार देखने व समझने का प्रयास करते हैं ।
"धरती असंतुलन=> उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है।
दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना। यह विकल्प स्वभाविक रूप में दिखाई पड़ता है - प्रवाह बल को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर लेना। इस अकेले स्रोत के प्रावधान से, प्रदूषण रहित प्रणाली से, विद्युत ऊर्जा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो सकती है।
इसी के साथ समृद्ध होने के लिए हवा का दबाव, समुद्र तरंगों का दबाव, गोबर गैस, प्राकृतिक गैस जो स्वभाविक रूप में धरती के भीतर से आकाश की ओर गमन करती रहती है, ऐसे सभी स्रोतों का भरपूर उपयोग करना मानव के हित में है, मानव के सुख समृद्धि के अर्थ में है।
कुछ ऐसे यंत्र जो तेल से ही चलने वाले हैं, उनके लिए खाद्य, अखाद्य तेलों (वनस्पति, पेड़ों से प्राप्त) को विभिन्न संयोगों से यंत्रोपयोगी बनाने के शोध को पूरा कर लेना चाहिए। तभी मानव यंत्रों से प्राप्त सुविधाओं को बनाये भी रख सकता है। ईंधन समृद्धि बना रह सकता है।
तैलीय प्रयोजनों के लिए जंगलों में तैलीय वृक्षों का प्रवर्तन किया जाना संभव है ही, सड़क, बाग बगीचों में भी यह हो सकता है। किसानों के खेत के मेंड़ पर भी हो सकता है, यह केवल मानव में सद्बुद्धि के आधार पर संपन्न होने वाला कार्यक्रम है।
धरती के ऊपरी सतह में विशाल संभावनायें है, ऊर्जा स्रोत बनाने की, ईंधन स्रोत बनाने की। दबाव स्रोत, प्रवाह स्रोत, सौर्य ऊर्जा स्रोत, ये सब स्वभाविक रूप में प्रचुर मात्रा में हैं ही। इनके साथ ही तैलीय वृक्षों के विपुलीकरण की संभावना धरती पर ही है। धरती के भीतर ऐसा कुछ भी स्रोत नहीं है। जो है केवल धरती को स्वस्थ रखने के लिए है।
यदि सही परीक्षण, निरीक्षण करें तो धरती के सतह पर ही संपूर्ण सौभाग्य स्रोत है। धरती के भीतर, ऊपरी हिस्से के समान या सदृश्य कोई स्रोत दिखाई नहीं पड़ती।
(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय:3-7, पेज नंबर:85-91)
◘ जल प्रवाह बल को हम उपयोग करें न करें, प्रवाह तो हर देश काल में बना ही रहता है। ऋतु संतुलन की सटीकता, इन नदियों के अविरल धारा का स्रोत होना ही समझदार मानव को स्वीकार होता है। इसी के साथ वन, खनिज का अनुपात धरती पर कितना होना चाहिए, इसका भी ध्यान सुस्पष्ट होता है।
इसमें ध्यान देने का बिन्दु यही है कि हर देश में विभिन्न स्थितियाँ बनी हुई हैं। हर विभिन्नता में वहाँ का ऋतु संतुलन अपने आप में सुस्पष्ट रहता ही है।
विकल्प विधियों में अर्थात् प्रदूषण मुक्त विधि से हम विद्युत को जितना पा रहे हैं, उससे अधिक प्राप्त कर लेना आवश्यक है, ऐसे विद्युत से सड़क में चलने वाली जितनी भी गाड़ियाँ हैं, उसके लिए बैटरी विधि से विद्युत को संजो लेने की आवश्यकता है। जिससे छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी गाड़ी चल सके। उसकी उपलब्धि जैसा खनिज तेल उपलब्ध होता है, ऐसा हो सकता है। इसे हर समझदार व्यक्ति स्वीकार कर सकता है।
जहाँ तक खेत में चलने वाली गाड़ी, हवा में चलने वाली गाड़ी की बात है, उसके लिए वनस्पति तेल को योग्य बनाकर उपयोग करेंगे। जल पर चलने वाले जहाजों के लिए वनस्पति तेल अथवा सूर्य ऊर्जा और बैट्री विधि तीनों को अपनाये रखेंगे।
इस क्रम में मानव का मन सज जाये, मानव एक बार ताकत लगाये तो प्रौद्योगिकी संसार अर्थात् प्रवाह बल के साथ जूझते मानव जाति से प्रकृति के साथ होने वाले पाप कर्म, अपराध कर्म रुक सकते हैं।
(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय: 3 - 13, पेज नंबर: 135)
जल प्रदूषण=> जहाँ तक जल प्रदूषण की बात है, उसका सुधार संभव है, क्योंकि हर दूषित मल, प्रौद्योगिकी विसर्जनों को विविध संयोग प्रक्रिया से खाद के रूप में अथवा आवासादि कार्यों में लेने योग्य वस्तुओं के रूप में परिणित कर सकते हैं, ऐसे परिणित के लिए सभी प्रकार से - मनुष्य से, प्रौद्योगिकी विधि से, संपूर्ण विसर्जन को अपने-अपने स्थानों में ही कहीं, धरती के गहरे गढ्ढों में संग्रहित करने की आवश्यकता बनती है, उसके बाद ही इसका विनियोजन संभव हो जायेगा।
वायु प्रदूषण=> जहाँ तक वायु प्रदूषण है, इसका निराकरण तत्काल ही खनिज कोयला और तेल के प्रति चढ़े पागलपन को छोड़ना पड़ेगा। इसका सहज उपाय विकल्पात्मक ऊर्जा स्रोतों को पहचानना जिससे प्रदूषण न होता हो। ऐसा ऊर्जा स्रोत स्वाभाविक रूप में यही धरती प्रावधानित कर रखी है।
◘ जैसे वायु बल, प्रवाह बल, सूर्य ऊष्मा और गोबर-कचड़ा गैस। यह सब आवर्तनशील विधि से उपकार कार्य के रूप में नियोजित होते हैं।
◘ जैसा सूर्य ऊष्मा से ईंटा पत्थर को पकाने की भट्टियों को बना लेने से वह पक भी जाता है और उससे प्रदूषण की कोई सम्भावना भी नहीं रहती।
◘ प्रवाह दबाव कई नदी-नालों में मानव को उपलब्ध है जैसा ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना नदियाँ जहाँ सर्वाधिक दबाव से बह पाती हैं, ऐसे स्थलों में प्रत्येक 20-25 मीटर की दूरी में बराबर उसके दबाव को निश्चित वर्तुल गतिगामी प्रक्रिया से विद्युत ऊर्जा को उपार्जित कर सकते हैं। इस विधि से सर्वाधिक देश में आवश्यकता से अधिक विद्युत शक्ति के रूप में संभावित है।
अभी तक बनी हुई प्रदूषण का कारण केवल ईंधन संयोजन विधि में दूरदर्शिता प्रज्ञा का अभाव ही रहा है। अतएव, गलती एवं अपराधों का सुधार करना, कराना, करने के लिए सम्मति देना हर मनुष्य में समायी हुई सौजन्यता है।
"पहले इस बात को स्पष्ट किया है कि मानव अपने को विविध समुदायों में परस्पर विरोधाभासी क्रम में पहचान कर लेने का अभिशाप ही इन सभी विकृतियों का कारण रहा है मूलत: इसी का निराकरण और समाधान अति अनिवार्य हो गया है। क्योंकि शोषण, द्रोह, विद्रोह और युद्ध को हम अपनाते हुए किसी भी विधि से वर्तमान में विश्वस्त हो नहीं पायेंगे बल्कि भय, कुशंका, दरिद्रता, दीनता, हीनता, क्रूरता मंडराते ही रहेंगे। इस सबके चुंगल से छूटना ही मूलत: विपदाओं से बचने का उपाय है।"
(व्यवहारवादी समाजशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर: 57-59)
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी
ऐसे में मानव को "स्वयं को", "अस्तित्व" को व "मानवीयता पूर्ण आचरण" को समझने के अलावा और क्या कदम उठाने की आवश्यकता है इस पर आइये श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी (प्रणेता- मध्यस्थ दर्शन, सह अस्तित्ववाद) द्वारा सुझाए गए कुछ विकल्पों को एक बार देखने व समझने का प्रयास करते हैं ।
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"धरती असंतुलन=> उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है।
दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना। यह विकल्प स्वभाविक रूप में दिखाई पड़ता है - प्रवाह बल को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर लेना। इस अकेले स्रोत के प्रावधान से, प्रदूषण रहित प्रणाली से, विद्युत ऊर्जा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो सकती है।
इसी के साथ समृद्ध होने के लिए हवा का दबाव, समुद्र तरंगों का दबाव, गोबर गैस, प्राकृतिक गैस जो स्वभाविक रूप में धरती के भीतर से आकाश की ओर गमन करती रहती है, ऐसे सभी स्रोतों का भरपूर उपयोग करना मानव के हित में है, मानव के सुख समृद्धि के अर्थ में है।
कुछ ऐसे यंत्र जो तेल से ही चलने वाले हैं, उनके लिए खाद्य, अखाद्य तेलों (वनस्पति, पेड़ों से प्राप्त) को विभिन्न संयोगों से यंत्रोपयोगी बनाने के शोध को पूरा कर लेना चाहिए। तभी मानव यंत्रों से प्राप्त सुविधाओं को बनाये भी रख सकता है। ईंधन समृद्धि बना रह सकता है।
तैलीय प्रयोजनों के लिए जंगलों में तैलीय वृक्षों का प्रवर्तन किया जाना संभव है ही, सड़क, बाग बगीचों में भी यह हो सकता है। किसानों के खेत के मेंड़ पर भी हो सकता है, यह केवल मानव में सद्बुद्धि के आधार पर संपन्न होने वाला कार्यक्रम है।
धरती के ऊपरी सतह में विशाल संभावनायें है, ऊर्जा स्रोत बनाने की, ईंधन स्रोत बनाने की। दबाव स्रोत, प्रवाह स्रोत, सौर्य ऊर्जा स्रोत, ये सब स्वभाविक रूप में प्रचुर मात्रा में हैं ही। इनके साथ ही तैलीय वृक्षों के विपुलीकरण की संभावना धरती पर ही है। धरती के भीतर ऐसा कुछ भी स्रोत नहीं है। जो है केवल धरती को स्वस्थ रखने के लिए है।
यदि सही परीक्षण, निरीक्षण करें तो धरती के सतह पर ही संपूर्ण सौभाग्य स्रोत है। धरती के भीतर, ऊपरी हिस्से के समान या सदृश्य कोई स्रोत दिखाई नहीं पड़ती।
(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय:3-7, पेज नंबर:85-91)
◘ जल प्रवाह बल को हम उपयोग करें न करें, प्रवाह तो हर देश काल में बना ही रहता है। ऋतु संतुलन की सटीकता, इन नदियों के अविरल धारा का स्रोत होना ही समझदार मानव को स्वीकार होता है। इसी के साथ वन, खनिज का अनुपात धरती पर कितना होना चाहिए, इसका भी ध्यान सुस्पष्ट होता है।
इसमें ध्यान देने का बिन्दु यही है कि हर देश में विभिन्न स्थितियाँ बनी हुई हैं। हर विभिन्नता में वहाँ का ऋतु संतुलन अपने आप में सुस्पष्ट रहता ही है।
विकल्प विधियों में अर्थात् प्रदूषण मुक्त विधि से हम विद्युत को जितना पा रहे हैं, उससे अधिक प्राप्त कर लेना आवश्यक है, ऐसे विद्युत से सड़क में चलने वाली जितनी भी गाड़ियाँ हैं, उसके लिए बैटरी विधि से विद्युत को संजो लेने की आवश्यकता है। जिससे छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी गाड़ी चल सके। उसकी उपलब्धि जैसा खनिज तेल उपलब्ध होता है, ऐसा हो सकता है। इसे हर समझदार व्यक्ति स्वीकार कर सकता है।
जहाँ तक खेत में चलने वाली गाड़ी, हवा में चलने वाली गाड़ी की बात है, उसके लिए वनस्पति तेल को योग्य बनाकर उपयोग करेंगे। जल पर चलने वाले जहाजों के लिए वनस्पति तेल अथवा सूर्य ऊर्जा और बैट्री विधि तीनों को अपनाये रखेंगे।
इस क्रम में मानव का मन सज जाये, मानव एक बार ताकत लगाये तो प्रौद्योगिकी संसार अर्थात् प्रवाह बल के साथ जूझते मानव जाति से प्रकृति के साथ होने वाले पाप कर्म, अपराध कर्म रुक सकते हैं।
(मानव कर्म दर्शन, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, अध्याय: 3 - 13, पेज नंबर: 135)
जल प्रदूषण=> जहाँ तक जल प्रदूषण की बात है, उसका सुधार संभव है, क्योंकि हर दूषित मल, प्रौद्योगिकी विसर्जनों को विविध संयोग प्रक्रिया से खाद के रूप में अथवा आवासादि कार्यों में लेने योग्य वस्तुओं के रूप में परिणित कर सकते हैं, ऐसे परिणित के लिए सभी प्रकार से - मनुष्य से, प्रौद्योगिकी विधि से, संपूर्ण विसर्जन को अपने-अपने स्थानों में ही कहीं, धरती के गहरे गढ्ढों में संग्रहित करने की आवश्यकता बनती है, उसके बाद ही इसका विनियोजन संभव हो जायेगा।
वायु प्रदूषण=> जहाँ तक वायु प्रदूषण है, इसका निराकरण तत्काल ही खनिज कोयला और तेल के प्रति चढ़े पागलपन को छोड़ना पड़ेगा। इसका सहज उपाय विकल्पात्मक ऊर्जा स्रोतों को पहचानना जिससे प्रदूषण न होता हो। ऐसा ऊर्जा स्रोत स्वाभाविक रूप में यही धरती प्रावधानित कर रखी है।
◘ जैसे वायु बल, प्रवाह बल, सूर्य ऊष्मा और गोबर-कचड़ा गैस। यह सब आवर्तनशील विधि से उपकार कार्य के रूप में नियोजित होते हैं।
◘ जैसा सूर्य ऊष्मा से ईंटा पत्थर को पकाने की भट्टियों को बना लेने से वह पक भी जाता है और उससे प्रदूषण की कोई सम्भावना भी नहीं रहती।
◘ प्रवाह दबाव कई नदी-नालों में मानव को उपलब्ध है जैसा ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना नदियाँ जहाँ सर्वाधिक दबाव से बह पाती हैं, ऐसे स्थलों में प्रत्येक 20-25 मीटर की दूरी में बराबर उसके दबाव को निश्चित वर्तुल गतिगामी प्रक्रिया से विद्युत ऊर्जा को उपार्जित कर सकते हैं। इस विधि से सर्वाधिक देश में आवश्यकता से अधिक विद्युत शक्ति के रूप में संभावित है।
अभी तक बनी हुई प्रदूषण का कारण केवल ईंधन संयोजन विधि में दूरदर्शिता प्रज्ञा का अभाव ही रहा है। अतएव, गलती एवं अपराधों का सुधार करना, कराना, करने के लिए सम्मति देना हर मनुष्य में समायी हुई सौजन्यता है।
"पहले इस बात को स्पष्ट किया है कि मानव अपने को विविध समुदायों में परस्पर विरोधाभासी क्रम में पहचान कर लेने का अभिशाप ही इन सभी विकृतियों का कारण रहा है मूलत: इसी का निराकरण और समाधान अति अनिवार्य हो गया है। क्योंकि शोषण, द्रोह, विद्रोह और युद्ध को हम अपनाते हुए किसी भी विधि से वर्तमान में विश्वस्त हो नहीं पायेंगे बल्कि भय, कुशंका, दरिद्रता, दीनता, हीनता, क्रूरता मंडराते ही रहेंगे। इस सबके चुंगल से छूटना ही मूलत: विपदाओं से बचने का उपाय है।"
(व्यवहारवादी समाजशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर: 57-59)
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी
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