Friday, January 19, 2018

धरती की व्यवस्था बने रहने देने के लिए मानव की भूमिका पर विचार- भाग २

पहले इस बात को इंगित कराया है जो ऊर्जा स्रोत विगत के बुद्धिमान पीढ़ी ने अपनाया उसके पक्ष में सम्पूर्ण प्रौद्योगिकी निर्भर हुई। उससे हुई प्रदूषण की पराकाष्ठा। 
अब मुख्य रूप में ऊर्जा सम्बन्धों में सभी आवर्तनशील विकल्पों को अपनाना अनिवार्य है। अभी तक अपनाया हुआ ऊर्जा स्रोतों में से गोबर, कचड़ा गैस, पवन ऊर्जा, और सौर ऊर्जा, प्रपात ऊर्जा (जल विद्युत) यह आवर्तनशील होना स्पष्ट हो चुकी है। जिसके संयोग से जितने भी कार्यकलाप करते हैं उससे कोई प्रदूषण नहीं होता। 
अभी तक जैसा नदी के प्रपात स्थलियों में बिजली प्रवाह प्राप्त करने का यंत्र संयोजनों को सजाया जा चुका है और समुद्र तरंग के बारे में भी प्रयोग शुरू किया गया है। इसी के साथ जल प्रवाह शक्तियों को विद्युत प्रवाह शक्तियों के रूप में पाने का प्रयास करना समीचीन है। यह सर्वाधिक, सभी देशों में समीचीन है। कोई न कोई महत्वपूर्ण नदी सभी समय बहती रहती है। बहाव का दबाव अनुस्यूत रहता है। उतने दबाव से संचालित होने वाली विद्युत संयंत्र को सर्वसुलभ करना आवश्यक है। 
ऐसी तकनीकी को प्राप्त कर शिक्षण पूर्वक लोक व्यापीकरण करना आवश्यक है। विद्युत संयंत्रों का विभिन्न स्तर मानव जाति पा चुकी है। इसलिए प्रवाह तंत्र के अंतर्गत इसे पाना, चित्रित कर लेना, व्यावहारीकरण कर लेना सहज है।
जिस गति प्रौद्योगिकी स्थितियों को पाकर हम अभ्यस्त हो गए हैं, उसमें हर दिशा में गति की ही बात आती है। ऊर्जा गति के लिए संयंत्र को विद्युत चालित, तेल चालित, वाष्प चालित विधियों से संचालित करते हैं। 
विद्युत को प्रवाह शक्तियों से सर्वाधिक रूप में पा सकते हैं। तैलीय यंत्रों के लिए खनिज तेल के स्थान पर वनस्पतिजन्य तेल से चलने वाली यंत्रों की संरचना एक आवश्यक घटना है। इसके लिए मानव विचार कर ही रहा है। इस विधा में दृष्टिपात करने पर वनस्पति तेल से संचालित होने वाले यंत्र इसमें आवर्तनशीलता अपने आप में स्थापित है। 
वनस्पतियाँ पुष्टितत्व के साथ ही हर प्रकार के द्रव्यों का संग्रहण कर सकता है। मानव के लिए आवश्यकीय प्राणवायु को समृद्ध करने के लिए सहायक कार्यकलाप के रूप में अधिकांश वनस्पतियों को देखा जाता है। वनस्पति तेल से संचालित क्रियाकलाप से तैलीय धूम्र, वनस्पति संसार में पाचन योग्य रहता ही है। इसके स्रोत संबध को इस प्रकार समझा गया है कि प्रत्येक कृषक अपने यात्रा कार्य में नियोजित होने वाले तेल का तादात समझना, समझाना संभव है। इसे किसी भी परिवार का यात्रा कार्य एवं कृषि कार्यों के आधार पर आवश्यक तादात को पहचाना जाता है। इस पहचान के आधार पर किसी भी तैलीय बीजों को तैयार कर प्रस्तुत कर सकता है। जैसे नीम, कंजी (करंज), एरण्ड, क्षुद्र एरण्ड इत्यादि। 
यह भी देखा गया है कि हर देश, काल, परिस्थितियों में तैलीय वृक्षों को हर कृषक पहचाना ही रहता है। जहाँ जो चीज प्रचुर मात्रा में रहती है, उसको भी पहचाना रहता है। यह तभी सफल होता है, परिवार मानव और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी हो जाए। तैलीय स्रोत बीज वृक्ष न्याय से नित्य स्रोत होना देखा गया है। यह आवर्तनशील होना नियति सहज है। इससे उत्पन्न धूम्र वनस्पतियों का आहार होना, वनस्पतियों में यह धुआँ पच जाना देखा जाता है। इस विधि से यह भी क्रम से वृक्ष बीज, तेल धूम्र और वृक्षों का आहार, पुन: बीज विधि से आवर्तनशील होना दिखाई पड़ता है। 
ऐसे तैलीय वृक्षों को सड़कों के किनारे आवश्यकतानुसार जंगल में रोपित कर मानव जाति के लिए आवश्यकता से अधिक तैलीय बीजों का संग्रहण करना नित्य समीचीन है। इसमें दो ही बिन्दु प्रधान हैं। धरती का संतुलन और मानव संतुलन प्रधानत: अध्ययन और योजना का आधार बिन्दु हैं। यह तो बहुत स्पष्ट है मानव परम्परा की अक्षुण्णता धरती की संतुलन और स्वस्थता पर निर्भर है।
आवर्तनशील ऊर्जा स्रोत के क्रम में सूर्य उष्मा से विद्युत और उष्मा कार्य-भट्टियों को प्राप्त कर लेना सहज है। सूर्य उष्मा भट्टी के स्वरूप को चूना पत्थर आदि से संबंधित पक्वकारी क्रियाकलापों को सम्पादित करने के लिए चित्रित करना आवश्यक है इसका स्रोत सूर्य का प्रतिबिम्बन को किरण के रूप में प्राप्त करना, वह किरण के साथ उष्मा प्रवाह होना, फलस्वरूप रुई, लकड़ी आदि वस्तुओं में आग लगने वाली क्रिया के रूप में देखा जा सकता है। इस प्रयोग के आधार पर अर्ध गोलाकार भट्टी के रूप में रचना किया जा सकता है इसमें उत्पन्न अथवा इसमें अर्जित उष्मा से भट्टी से बनी हुए सभी वस्तुयें और चूना पत्थर पकना सहज है। यह भी आवर्तनशील विधि से व्यवस्था में प्रमाणित हो जाता है। क्योंकि सूर्य उष्मा का परावर्तन सूर्य बिंब अपने में स्वभावगति को प्राप्त करने के क्रम में होना पाया जाता है। सूर्य बिंब आज की स्थिति में आवेशित गति में होने के फलस्वरूप उष्मा का परावर्तन भावी है। परावर्तित सभी उष्मा विभिन्न ग्रह-गोलों में पच जाना पाया जाता है। इस क्रम में पचाया हुआ भी स्वभाव गति में होना और स्वभावगति में आने के लिए उन्मुख है। उसके लिए सह-अस्तित्व व सहज व्यवस्था मार्ग प्रशस्त होना समझ में आता है। इसी प्रकार धरती सौर व्यूह, अनंत सौर व्यूह, ब्रह्मांडीय किरण स्वभाव गति रूप में सह अस्तित्वकारी गतिविधि कार्यकलाप करता हुआ समझ में आता है।

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर:66- 71)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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