“...एक प्रमुख नियम है कि बल और शक्ति अविभाज्य है। बल ही गुणी एवं शक्ति ही गुण है। इस आधार पर हर शक्ति के मूल में बल होना आवश्यक हैं। इसलिए शक्ति और बल के सह-अस्तित्व को स्वीकारते हुए सोचने पर अस्तित्व वैभव को समझना संभव हो जाता है।
शून्य आकर्षण की स्थिति में प्रत्येक एक अपने स्थिति-गति के अनुसार, अक्षुण्ण हो जाता है। यह स्थिति-गति की निरंतरता सामरस्यता सिद्धांत है। इसे इस धरती, सूर्य, ग्रह-गोलों की स्थितियों को देखते हुए समझ सकते हैं। यह धरती अपनी स्थिति में, गति में अक्षुण्ण हैं। इसीलिए इसका स्वभाव गति में होना प्रमाणित हैं।
इन्हीं ग्रह-गोल, नक्षत्रों को देखने पर यह भी पता लगता हैं कि यह सब शून्य आकर्षण में हैं। शून्य आकर्षण में होने का फल यही है कि स्वभाव गति रूप में, स्वभाव गति स्थिति अक्षुण्ण रहे आया। शून्य आकर्षण में होना, स्वभाव गति प्रतिष्ठा है, इसका प्रमाण यह धरती स्वयं प्रकाशित है।
इसी क्रम में और तथ्य मिलता हैं कि शून्य आकर्षण की स्थिति में, प्रत्येक ग्रह गोल में समाहित सम्पूर्ण वस्तुएँ, उसी ग्रह गोल के वातावरण सीमा में ही रहते हैं, चाहे वे वस्तुएँ स्वभाव गति में हो या आवेशित गति में। इसका प्रमाण सूर्य को देखने पर मिलता है। सूर्य में संपूर्ण वस्तुएँ विरल अवस्था में होना दिखाई पड़ता है। कोई ग्रह-गोल में स्थित वस्तु, यदि आवेशित हो सकता है, तो सूर्य में वस्तु जितना आवेशित है, उतना हो सकता है। इसके बावजूद सूर्य अपनी सम्पूर्ण मात्रा (संपूर्ण वस्तु) सहित ही कार्यरत है।
स्वयं में ग्रह-गोलों में निहित वस्तुओं के आवेशित होने के कारणों की ओर ध्यान देंगे। प्रत्येक ग्रह-गोल में, जैसे इस धरती में किसी तादाद तक विकिरणीय द्रव्यों के रहते, सभी अवस्थाओं का संतुलित रहना पाया जा रहा है। संतुलन का तात्पर्य सभी अवस्थाओं की वर्तमानता से हैं, अथवा चारों अवस्थाओं को वर्तमान होने से हैं और इनके अंतर्संबंधों में सह-अस्तित्व रूपी प्रमाण के वैभव से हैं।
यह भी मानव के सम्मुख स्पष्ट है कि चरम तप्त अर्थात् सर्वाधिक तप्त स्थिति में सूर्य की गणना की जा चुकी हैं। सूर्य में होने वाले ताप का परावर्तन, इस धरती में पहुँचना देखा जा रहा हैं। सूर्य (के) सहज बिंब के प्रतिबिंब, अनुबिम्ब और प्रत्यानुबिम्ब को प्रकाश के रूप में देखा जा रहा है।
धरती की सतह के नीचे स्थित और पूरकता विधि से कार्यरत इन विकिरणीय द्रव्यों को भ्रमित मानव धरती की सतह पर लाकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। इससे नाभकीय सहज मध्यस्थ क्रिया (मध्यस्थ बल और शक्ति) आवेशित अंशों को संतुलित करने में असमर्थ हो जाते है एवं विस्फोट हो जाता है। अजीर्ण परमाणु अपने स्वरूप में विकिरणीय होना पाया जाता है। विकिरणीय द्रव्य की परिभाषा ही हैं कि विकिरणीय परमाणुओं में परमाणु सहज ऊष्मा अथवा अग्नि अंतर्नियोजित होने लगती हैं। इस सूत्र से भी यह स्पष्ट होता है कि आवेशित (हस्तक्षेपित) स्थिति में अंतर्नियोजित ऊष्मा का दबाव इतना अधिक हो जावे कि जिससे नाभिकीय द्रव्य विस्फोटक स्थिति में पहुँचे।
यह अब तर्क संगत लगता हैं कि सूर्य में सर्वाधिक अजीर्ण परमाणु में आवेश तैयार हो गए। फलस्वरूप नाभिकीय विस्फोट होने लगा। उसका प्रभाव विस्फोट का आधार बना। इस ढंग से सूर्य में समाहित सभी द्रव्य, विस्फोट कार्य में व्यस्त हो गए। इसके पक्ष में आज के चोटी के विज्ञानी, इस धरती पर कहते हुए पाये गये हैं कि अभी जितना नाभिकीय विस्फोटक बनाम एटम बम आकाश में, धरती में और समुद्र में रखे गये हैं, उन में यदि विस्फोट हो जाएँ तब क्रमिक रूप में प्रत्येक परमाणु के नाभिकीय विस्फोट की स्थिति आ जाएगी।
एक और तरीके से कल्पना किया जा सकता है, इस धरती में ये विज्ञानी, नाभिकीय विस्फोट सिद्घांत को अच्छी तरह समझ गये हैं। उसका विस्फोट करने में पारंगत भी हो गए हैं, और उसके लिए तैयारी भी कर लिये हैं। इतना तो अपना जीता-जागता, देखा-भाला तथ्य हैं। अस्तु, सूर्य में स्वाभाविक रूप में, इस धरती के जैसे ही चारों अवस्थाओं का विकास हो चुका रहा हो। इस धरती में जैसा विज्ञानी अपनी महिमा वश, इस धरती को सूर्य जैसा बदलने के सारे उपाय कर लिये हैं, वैसे ही सूर्य में भी ऐसी तैयारी, विज्ञानी लोग किये हों? अभी यहाँ यह प्रयोग सिद्घ नहीं हुआ है। वहाँ यदि प्रयोग सिद्घ हो गया, तब उस स्थिति में यह कह सकते है कि श्रेष्ठतम विज्ञानी ही ऐसे कार्यों को संपन्न किये हो।
* (स्रोत- समाधानात्मक भौतिकवाद, सं.- 2009, अध्याय:9(7), पेज नंबर: 269-272)
* अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
* प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी
* चित्र- साभार गूगल
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(नोट- कृपया माने नहीं तर्क संगत विधि से विचार करने का प्रयास करें....)
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