Friday, January 19, 2018

धरती- भाग १

आज समूची मानव जाति धरती के बिगड़ते पर्यावरण से चिंतित नजर आ रही है मानव जाति के कुछ कार्य अनजाने में ही मानव जाति के लिए ही खतरा पैदा कर चुके हैं और उसे अब तक जारी रखे हुए हैं। इसी विषय पर शोध के दौरान कुछ संदर्भ "मध्यस्थ दर्शन/ सह-अस्तित्ववाद" से प्राप्त हुए जिसे मैं यहाँ साझा कर रही हूँ ताकि हम इस विषय पर कुछ तर्क संगत ढंग से विचार कर एक रास्ता निकाल सकें। और यह एक विकल्प के रूप में लोगों के सामने आए।
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"धरती आज जिस शक्ल में दिखाई पड़ रही है, उसमें से खनिज तेल और कोयला धरती से बाहर कर दिया गया। 
धरती को एक अपने ढंग से क्रियाशील, स्वचालित वस्तु के रूप में पहचानने के उपरान्त यह समझ में आता है कि यही धरती इस सौर व्यूह में एक मात्र वैभवपूर्ण स्थिति में है क्योंकि इसी धरती पर पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था व ज्ञानावस्था चारों अवस्थायें प्रगट हो चुकी हैं।

इसमें से ज्ञानावस्था के मानव ही इस धरती का पेट फाड़ने के कार्यक्रम को प्रस्तुत किया है। इसके सामान्य दुष्परिणाम भी आने लगे हैं जैसे - जल, वायु और धरती में प्रदूषण।

◘ प्रदूषण का तात्पर्य असंतुलन से ही है। असंतुलन का स्पष्ट रूप अथवा चिन्हित रूप धरती सहज उर्वरकता का घट जाना अथवा उर्वरकता कम होना, लुप्त हो जाना, इसके स्थान पर अम्लीय, क्षारीय और रासायनिक धूलि धूसरित होने के आधारों पर धरती में असंतुलन उर्वरकता प्रणाली को अनुर्वरकता में बदलते हुए देखने को मिलता है। यही धरती का असंतुलन है, एक विधि से।

◘ दूसरे विधि से धरती का असंतुलन इसका वातावरण में परिवर्तन जिसका क्षतिपूर्ति अभी मानव के हौसले के अनुसार दिखायी नहीं पड़ती। यह धरती के वातावरण सहज विरल वस्तुओं का कवच सभी ओर दिखायी पड़ती है, इसमें जितना ऊँचाई सभी ओर फैली हुई है, वह अपने आप में कम होना स्वीकारा गया है। मुख्य रूप में सूर्य किरणों (ताप और वस्तु का संयोग का प्रतिबिम्बन) असंतुलन कार्य प्रभावों को सामान्य बनाने का कार्य, यही कवच, जो आज लुप्त हो गया अथवा होने वाला है, से होता रहा है। अब इस कवच का तिरोभाव होने से धरती का ताप बढ़ना शुरू हो गया आंकलित हो चुका है। धरती के ताप बढ़ने का तात्पर्य है धरती बुखार से ग्रसित हो गयी है। आदमी के शरीर में होने वाले बुखार की दवाई (फिर बुखार न हो ऐसी दवाई) अभी तक तैयार नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में धरती के बुखार की दवा कौन बनायेगा। यह एक अलंकारिक प्रश्न रूप है। साथ ही इस प्रश्न चिन्ह के मूल में मानव का ही करतूत है, यंत्र प्रमाण की ही विकरालता है। इसके आगे ताप बढ़ते-बढ़ते इसे 4 " डिग्री बढ़ने के उपरान्त इस धरती के ध्रुव प्रदेश में धरती अपने संतुलन के लिए संग्रहित बर्फ पिघलने का अनुमान बन चुकी है। फलस्वरूप समुद्र की सतह सैकड़ों फीट बढ़कर पानी धरती को अपने अंतराल में छुपा सकता है, उस स्थिति में मानव परम्परा रहेगी कहाँ, सोचना पड़ेगा। यह एक विपदा की स्थिति स्पष्ट हो चुकी है।

ऐसा भी कल्पना किया जा सकता है कि इस धरती पर प्रथम बूंद पानी का घटना ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश ही संभव हो पायी है, इसी के चलते ताप किरण पाचन विधि से मुक्त, अर्थात् धरती में पचने की विधि से मुक्त प्रवेश होना संभव हो गया है। पानी के बूँद के मूल में विभिन्न भौतिक तत्वों का अनुपातीय मिलन विधि है, वह विच्छेद होने का बाध्यता बन जाये; उस स्थिति में कौन इसे रोक पायेगा।

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◘ तीसरी परिकल्पना और बुद्धिमान व्यक्ति कर सकता है कि इस धरती के दो ध्रुवों की परस्परता में निरंतर एक चुंबकीय धारा बनी हुई है, ऐसी चुम्बकीय धारा को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस धरती की गति स्वयं में व्यवस्था के रूप में और समग्र में (सौर व्यूह में) भागीदारी के रूप में प्रमाणित है। इससे चुम्बकीय धारा की स्थिरता, दृढ़ता बने रहने की व्यवस्था है। अभी जैसे धरती का पेट फाड़ दिया गया है अगर यह असंतुलित हुई तब कौन सी नस्ल व रंग वाला मानव इसे सुधारेगा और जात, सम्प्रदाय, मत, पंथ वाला कौन ऐसा व्यक्ति है जो इसे सुधार पायेगा। इन्हीं सबकी परस्परता में हुए विरोध, विद्रोह, युद्ध ही इस धरती के पेट फाड़ने की आवश्यकता को निर्मित किया है, यह भी ऐतिहासिक घटनाओं से स्पष्ट है।"

(व्यवहारवादी समाजशास्त्र, अध्याय:3, पेज नंबर: 55-57)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

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