Friday, January 19, 2018

धरती - भाग २

"आवर्तनशील अर्थशास्त्र - ऊर्जा 
अभी तक ऊर्जा सम्पादन कार्य को धरती के पेट में समायी हुई खनिज तेल और खनिज कोयला, विकरणीय धातुओं को ऊर्जा सर्वाधिक स्रोत का लक्ष्य बनाया। धरती अपने में संतुलित रहने के लिए कोयला और खनिज तेल धरती के पेट में ही समाया रहना आवश्यक रहा। इसका गवाही यही है कि यह धरती पर मानव अवतरित होने के पहले तक, यही धरती इन दोनों वस्तुओं को अपने पेट में समा ली थी। इसे पहले विज्ञानी भी पहचान सकते थे। ऐसा घटित नहीं हुआ। यही मूलत: वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ धरती के साथ भी दुर्घटना को घटित करने का प्रयास भले ही अज्ञानवश हुआ हो यह घटना की विकरालता थोड़ा सा भी जागृत हुए मानव को दिखाई पड़ती है। 
धरती अपने में सम्पूर्ण प्रकार की भौतिक, रासायनिक सम्पदा से परिपूर्ण होने के उपरांत ही इस धरती पर जीव संसार और मानव संसार बसी। 
जीव संसार तक ही सभी क्रम अपने में पूरक विधि से संतुलित रहना पाया जाता है। मानव ही एक ऐसा वस्तु है, अपने कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रतावश भ्रमित होने के कारण ही धरती में अपना वैभव को प्रकाशित करने का जो स्वरूप रहा है उसे हस्तक्षेप करने का सभी प्रयास मानव के लिए एक हाफा-दाफी का कारण बन चुकी है। 
पर्यावरण में प्रदूषण अपने चरमोत्कर्ष स्थिति में पहुँचने के उपरांत सभी देश यही सोचते हैं प्रदूषण का विपदा अथवा प्रदूषण से उत्पन्न विपदाएं अपने-अपने देश में प्रभावित न हो, जबकि प्रदूषण का प्रभाव इस धरती के सभी ओर फैली ही रहती है। 
इसका साक्ष्य है इस धरती के ऊपरी भाग में बनी हुई रक्षा कवच। अर्थात् इस धरती की ओर आने वाली सूर्य ताप को यह धरती स्वयं पचाने योग्य परावर्तन विधि और प्रणालीबद्ध करता रहा है। वह धरती के सभी ओर से विलय होता हुआ आधुनिक उपकरणों से भी देखा गया है। जिसको विज्ञान की भाषा में ओजोन का नाम बताया करते हैं। यह भी वैज्ञानिक मापदण्डों से पता लग चुका है कि यह धरती का ताप किसी न किसी अंश में बढ़ना शुरू कर दिया है। इसका गवाही के रूप में समुद्र का जल किसी मात्रा में बढ़ता हुआ पहचाना गया है। इसी के साथ यह भी पहचाना गया है कि धरती में ताप बढ़ने पर ध्रुव प्रदेशों में जमा हुआ बर्फ पिघल सकता है। यदि पिघल जाए तब धरती अपने में जितना विशाल क्षेत्र को पानी से रिक्त बनाए रखा है, उनमें से सर्वधिक भाग जल मग्न होने की संभावना पर ध्यानाकर्षण कराया जा चुका है। 
यहाँ उल्लेखनीय घटना यही है। विज्ञानी ही खनिज तेल और कोयला को निकालने के लिए यांत्रिक प्रोत्साहन किए और उसी से प्रदूषण सर्वाधिक रूप में होना स्वीकारे । इसके पश्चात भी उन खनिज तेल और कोयले की ओर से अपना ध्यान नहीं हटा पा रहे हैं। 
यहाँ पर प्रदूषण और ताप संबंधी दो तलवार मानव जाति पर लटकी ही हुई है। यह सर्वविदित तथ्य है। तीसरे प्रकार से सोचा जाए कि यह विज्ञान व विवेकमान्य तथ्य है कि इस धरती पर जल जैसी रसायन निश्चित तादात तक गठित होने की व्यवस्था रहा है। इसका कारण स्त्रोत को ब्रह्माण्डिय किरणों का ही पूरक कार्य के रूप में समझ सकते हैं। 
इसका उदाहरण रूप में अभी-अभी चंद्रमा रूपी ग्रह पर आदमी जाकर लौटा है और वहाँ पानी न होने की बात कही गई है। वहाँ पानी गठित होने के लिए अब दो कारण दिखाई पड़ती है। एक तो मानव इस धरती से जाकर जल रूपी रासायनिक गठन क्रिया को आरंभ कराएं अथवा ब्रह्माडीय किरणों के पूरकता वश गठित हो जावे। इन आशयों को हृदयंगम करने के उपरांत जिस विधि से ब्रह्मांडीय किरणों के संयोग से जल बना ठीक इसके विपरीत यदि पानी वियोगित होने लगे तो धरती पानी विहीन हो जाएगी। और इसी क्रम में ब्रह्मांडीय किरण इस धरती में स्थित विकिरण परमाणुओं के संयोग से यदि परमाणु अपने मध्यांशों को उसके सम्पूर्ण गठन के विस्फोट के लिए तैयार हो जाता है और प्रजाति के सभी परमाणु विस्फोटित हो जाते हैं, तब क्या इस धरती के सभी प्रजाति के परमाणु स्वयं स्फूर्त विस्फोट प्रणाली में आहत नहीं हो जाएंगे ? इसके लिए अनुकूल परिस्थिति को बनाने के लिए मानव ने क्या अभी तक कुछ भी नहीं किया है? ये सब मानव सहज परिकल्पनाएँ उभर आती हैं। हमारा कामना ऐसा कोई दुर्घटना न हो, उसी संदर्भ में यह पूरा सवाल है।
बीती गुजरी वैज्ञानिक प्रयासों का जो कुछ भी परिणाम धरती पर असर किया है और धरती के वातावण में असर किया है, यही असर आगे और बढ़ने पर स्वाभाविक रूप में यह धरती जिस विधि से समृद्ध हुई उसके विपरीत विधि स्थापित हो सकता है। क्योंकि विकास भी नियम से होता है, ह्रास भी नियम से होता है।"

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय: 3, पेज नंबर:66- 71)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

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