Friday, January 19, 2018

धरती की व्यवस्था बने रहने देने के लिए मानव की भूमिका पर विचार- भाग ३

उत्पादन कार्यों के गति में जो ईंधनों को संयोजित किया जाता है इसमें आवर्तनशीलता को पहचानना अनिवार्य है। इन्हीं में जो कुछ भी अभी समीचीन प्रदूषण का संकट है इसमें मुख्य तत्व कोयला और खनिज तेल से मुक्त ईंधन विधि और प्रकाश विधियों को संजो लेना ही ईंधन सम्बन्धी आवर्तनशीलता का तात्पर्य है। 
इसके मुख्य स्रोत का अधिकांश भाग मानव मानस में आ ही चुका है जैसा सूर्य ऊर्जा, प्रपात बल, हवा का दबाव, प्रवाह शक्ति पर, गोबर कचरा से उत्पन्न ईंधन। इन सभी ओर ध्यान जा ही रहा है कि खनिज कोयला और तेल के बाद क्या करेंगे? 
इसके उत्तर में सोचा गया है। खनिज कोयला और तेल से ही सर्वाधिक प्रदूषण है। इस आधार पर इसकी आवश्यकता धरती को है, इसी आधार पर विकल्प को पहचानने की आवश्यकता है। तब विकल्पात्मक स्रोतों के प्रति निष्ठा स्थापित होना सहज है।
खनिज तेल और कोयला के अतिरिक्त और खतरनाक रूप में जो प्रदूषण आक्रमण कर रहा है वह विकिरणात्मक ईंधन प्रणाली है। ये तीनों धरती पर स्थित अन्न, वनस्पति, जीव और मानव प्रकृति के लिए सर्वाधिक हानिप्रद होना हम समझ चुके हैं। 
इसके बाद भी इन्हीं तीनों प्रकार के ईंधन की ओर सभी देशों का ध्यान आकर्षित रहना अभी तक देखा जा रहा है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है विकल्प की ओर हमारी निष्ठा पूरा स्थापित नहीं हो पा रही है। इसके मूल कारण दो स्वरूप में दिखाई पड़ती है 
(1) हर उत्पादन को स्वचालित बनाने का चक्कर और 
(2) उद्योगों का केन्द्रीयकरण प्रणाली का प्रयास। 
ये दोनों कारण पूँजी निवेश पर आधारित हैं। इसका आधार विशेषज्ञता है। इसी के साथ-साथ जनशक्ति को अर्थात् श्रम शक्ति को खरीदने के क्रम में आ चुकी है। इन्हीं दो उपक्रमों ईंधन विकल्प के प्रति निष्ठा स्थापित करने में, होने में अड़चन बन बैठी है। 
स्वचालित उत्पादन कार्य तंत्र विधि से जितना मानव उत्पादन कार्य में लग रहा था वह कम होता गया। कुछ लोगों को जिन्हें नौकरी मिल जाती है, वे अपने को धन्य मान लेते हैं। बड़े उद्योगों के चलते यह संकट गहराता जाता है। जैसा एक ही प्रकार से शिक्षा ग्रहण किया हुआ एक आदमी को नौकरी मिल जाता है और एक आदमी को नौकरी नहीं मिलता है। नौकरी मिला हुआ अपने को धन्य मानता है, नहीं मिला हुआ अपने को बेकार मानता है, निरर्थक मानता है। ये सभी बातें सभी विद्वानों को पता है। यहाँ उल्लेख करने का यही तात्पर्य है कि इसकी विकल्प विधि को पहचानने की आवश्यकता पर बल देना ही रहा। 
◘ ईंधन कार्य विधि के लिए प्रवाह बल शक्ति को सर्वाधिक रूप में विद्युतीकरण कार्य के लिए उपयोग करना आवश्यक है। प्रपात शक्तियों को उपयोग करने की विधि प्रचलित हो चुकी है। केवल प्रवाह बल का उपयोग विधि को प्रचलित करना अब अति अनिवार्य हो चुकी है। इससे छोटे-बड़े विद्युतीकरण कार्य को संपादित किया जा सकता है। प्रवाह का अपार स्रोत आज भी धरती पर है। अतएव ऐसे स्रोत रहते ही इसका उपयेाग करना प्रदूषण विहीन विद्युत चुम्बकीय ताकत को पाना बन जाता है। 
◘ इस क्रम में सूर्य उष्मा को भी विद्युतीकरण और ताप भट्टियों के लिए प्रयुक्त कर लेना उपयोगी है ही। इस ओर भी हमारा ध्यान लगा है। इसको समृद्ध बनाने की आवश्यकता और लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता है। 
इस क्रियाकलाप में ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार को त्याग देना आवश्यक है। इसे मानव का मानव सहज स्वत्व के रूप में पहचानने की आवश्यकता है क्योंकि एक मानव जो समझ सकता है उसे सभी मानव समझ सकते हैं इस तथ्य पर विश्वास करने की आवश्यकता है। इसी के आधार पर एक व्यक्ति जो पाता है उसे हर व्यक्ति पा सकता है। यह तभी संभव है जब ज्ञान और धर्म व्यापार को सर्वथा मानव त्याग दे और इस व्यापार के स्थान पर जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान यह जीवन जागृति रूपी सहज तथ्यों को लोक व्यापीकरण करने की अनिवार्यता, आवश्यकता को पहचानना।
हर मानव सहज रूप में ही विशेषता, आरक्षण, दलन, दमन जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों से मुक्त हो सकते हैं और मानवीयता देव-दिव्य मानवीयतापूर्ण विधि से इस धरती को सजा सकते हैं।

(आवर्तनशील अर्थशास्त्र, संस्करण : 2009, अध्याय:6, पेज नंबर:223-225)

अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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