Tuesday, April 15, 2014

Essence of Madhyasth-Darshan

1. Announcement for Awakening of Humankind

Let Live, and Live

2. Wish for Universal-Goodness

May Earth be Heaven, May Humans be Divine
May Dharma Prevail, May Goodness Arise Forever


3. Knowledge from Existential-experience

Infinite material and conscious units of nature are saturated in Space.
All units saturated in (transparent and permeable) space are with structure, attributes, true-nature, and dharma, exhibiting orderliness with its being-ness and participating in holistic-orderliness.


4. Fundamental-Principle of Nature

Forcefulness - Movement - Constitution


5. The Sermon

Know what you Believe,
Believe what you Know.


6. Status of Existence

State-full Nature saturated in Complete Space.


7. Evidence of Knowledge

Evidence of Knowledge is in Experience, Behaviour, and Work.

Knowledge-experience is the ultimate-evidence
Experiential-evidence itself is Understanding
Understanding itself is expressed
Expression of understanding itself is as resolved work and behaviour
Resolved work and behaviour itself is self-realization
Self-realization itself is Awakened-tradition
Awakened-tradition itself is Co-existence


8. Facts of Existence

Space is a Reality; Material-Nature is indestructible.
One pervasive Space; many conscious-entities.
Atma, buddhi, chitt, vritti, and mun are inseparable components of a conscious-entity (jeevan).
Human-being is a combined-expression of jeevan and body.
Space is one; godly-beings are many.
Human-race is one; their works are many.
Earth is one; nation-states are many.
One human-dharma (=happiness) manifests as many resolutions (as many as dimensions of human-living).
Jeevan is immortal; birth and death are events.

9. Reality

Development-Progression – Development-Completion in Coexistence
Awakening-Progression – Awakening-Completion
Expressions of Awakening-Completion, and Tradition of Wisdom

10. Knowledge

Knowledge of jeevan in co-existence
Knowledge of existence in the form of co-existence
Knowledge of humane-conduct
Experience itself is knowledge

11. Outcome of Research

Constitutional-Completeness
Activity-Completeness
Conduct-Completeness

12. Basis of Madhyasth-Darshan Proposition

Existence is coexistence as nature saturated in Space.

13. Proposition of Madhyasth Darshan

Material nature itself is in development-progression. Jeevan is a Development-Completed entity – as constitutionally-complete atom.
Jeevan (conscious-unit) upon awakening realizes undivied-society in human-tradition.
Awakened living with resolution and realizing sociality is human-ness.
Awakened living with awareness and realizing resolution is Godliness.
Humanness is as Integrity
Godliness is as Awareness with Integrity
Divinity is as Spontaneity with Awareness and Integrity
Constitutional-Completeness, Activity-Completeness, and Conduct-Completeness.

14. Truth

Natural-World is as units of nature saturated in space.
Natural-Inclination for Progress and Awakening is Destined.
Destiny for progress and awakening itself is Orderliness in Natural-World.
Human-being in illusion is free while doing actions, and is bound to face results of those illusive actions.
Awakened human-being is free both while doing actions, and in taking outcomes of those awakened actions.

15. Shelter of Humankind

Realization of Undivided-Society and Universal-Orderliness (Coexistence)

16. Orderliness in Humankind

Human-ness

17. Completeness in an Individual

Activity-Completeness
Conduct-Completeness

18. Completeness in a Society

Omni-dimensional Resolution
Prosperity
Trust
Coexistence

19. Completeness in a Nation-State

Skill
Art
Wisdom

20. Completeness in a World (Undivided World)

Unity (Universality) in Humane Culture, Civility, Norms, and Systems

21. Human Dharma

Happiness, Peace, Contentment, and Bliss

22. Basis of Living Principles

Systems for assuring right-use of resources (body, mind, and wealth)

23. Basis of Governing Principles

Systems for assuring conservation of resources (body, mind, and wealth)

24. Steps to Wisdom

Gross to Subtle
Subtle to Causal
Causal to Supreme-cause (Space)

25. Evidences of Awakening

Humankind evidences its awakening in a progressive manner.

Inhuman-ness to Human-ness
Human-ness to Godliness
Godliness to Divineness

26. Joy in Existence

Existence is joyous in all its expressions.

Jeevan – a conscious-entity – is joyous
Progression is joyous
Resolution is joyous
Awakening is joyous
Existential-Experience is joyous

27. Harmony at all levels

Harmony in all four dimensions of living of human-being (Work, Behaviour, Thinking, and Existential-experience).
Harmony in all five statuses of living of human-being (Individual, Family, Society, Nation, and World)
Harmony and Unity in Ten Staged Humane-Orderliness.

28. Ultimate Harmony

Existential-experience in Truth (Freedom from Illusion)

29. Accomplishment

Humankind’s experiencing established-values in coexistence
Resolution, Prosperity, and Universal-Goodness in Human-society
Freedom from illusion, and continuity of awakening


30. Completeness in Education

Value Education through Consciousness Development
Education of Technology

स्वराज्य

स्वराज्य का अर्थ समझे, जीये व समझाए बिना स्वराज्य नहीं आ सकता| अभी वर्तमान में स्वराज्य का अर्थ मेरा राज्य/ मेरा अधिकार ही प्रतीत होता है|

स्वयं के साथ प्रकृति समग्र का अध्ययन के पश्चात ही "स्वराज्य शब्द" का अर्थ हमारी मानसिकता में बैठने लगती है..स्वीकृति बनती है और प्राथमिकता बनने पर वैसा जीने का प्रयास स्वस्फूर्त होने लगता है इस प्रकार स्वयं का सार (स्वयं को, अस्तित्व को,संबंध को) जानकर, पहले हम स्वयं व्यवस्था में होते हैं तत्पश्चात बाहर व्यवस्था के लिए स्रोत हो जाते हैं...यही स्वराज्य है...यही स्वयं का वैभव है...

वातावरण

एक परिवार का उदाहरण लेते हैं २ स्थितियों पर विचार करते हैं..

पहली स्थिति परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर रहते हैं..मानवीयता पूर्ण आचरण में जीते हुए... सभी एक दूसरे के प्रति सम्मान, प्रेम और विश्वास का भाव रखते हुए हर निर्णय में एक दूसरे से सलाह लेते हुए कार्य व्यवहार करते हैं....ऐसे वातावरण में पला बढ़ा बच्चा.... आप कल्पना कर ही सकते हैं कि उसका भविष्य कितना उज्जवल और वह कितना चरित्रवान होगा! कम से कम ८०% अच्छी बातें तो वह सीखेगा ही..

और वहीँ एक दूसरी स्थिति...माता पिता आपस में लड़ते हुए...अपने बुजुर्गों को कोसते हुए..दिखाई देते हैं उस घर का बच्चा...बताइए कितने विश्वास पूर्वक जियेगा..और उसे किस प्रकार का वातावरण मिल रहा है? वह पूरे समय घर के सदस्यों का व्यवहार देख रहा होता है..और हर छोटी छोटी बातें उसे प्रभावित कर रही होती है...और जैसे ही यह बच्चा बड़ा होता है ठीक वैसा ही व्यवहार वह आपसे और बाकियों से करने लगता है...वह दोहरे चरित्र में जीने लगता है...
अब देखिये देश की स्थिति...और ये बच्चा जिसे आपका परिवार के साथ देश का माहौल भी प्रभावित कर रहा होता है...वह हर समय जाँच रहा होता है (इन्टरनेट के साथ टेलीविजन भी माध्यम है बाकी और तो है ही) कि हम सभी देश के नागरिक आपस में कैसे रह रहे हैं? कौन अपना... कौन पराया...यह सभी उसके आचरण में हम नागरिकों को देख कर आने लगता है... हम सभी नागरिक उस नन्हें से बच्चे जिसने इस दुनिया में/इस धरती पर अभी कदम भी नहीं रखा है..और वे सारे बच्चे जो इस दुनिया में/इस धरती पर आ चुके हैं..के माता पिता हैं...
हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते...ये बच्चे हमें (हम नागरिकों उर्फ अपने माता-पिता) को लड़ते देख रही है...
ये कैसा वातावरण हम उन्हें दे रहे हैं?
ये कैसी शिक्षा हम उन्हें दे रहे हैं?

हम कैसी पीढ़ी चाहते हैं? 
जो आपस में हमारी तरह लड़ते रहे या आपस में मिलजुल कर रहे? 
जाँचिये इसे और स्वयं ही निर्णय लें कि हमारी आने वाली पीढ़ी (इस देश की ही नहीं वरन इस धरती की क्योंकि धरती हम सभी की है) को कैसा वातावरण दें कि उनके चरित्र का विकास हो..वे निरन्तर सुख, समृद्धि पूर्वक रह सके..और जो स्वयं के प्रति विश्वास, सम्मान का भाव रखते हुए . .एक सुन्दर अखंड समाज की पृष्ठभूमि रख सके जिसमें अभय हो किसी से कोई डर ना हो..
क्या हम नहीं चाहते कि हमारे आने वाली पीढ़ी (इस धरती की) देवता हो..यह धरती स्वर्ग हो?
यदि ऐसा चाहते हैं तो इसकी क्या तैयारी हो रही है? विचार करें...
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"....प्रत्येक संतान को उत्पादन एवं व्यवहार एवं व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य बनाने का दायित्व अभिभावकों में भी अनिवार्य रूप से रहता है क्योंकि प्रथम शिक्षा माता-पिता से, द्वितीय परिवार से, तृतीय परिवार के संपर्क सीमा से, चतुर्थ शिक्षण संस्थान से, पंचम वातावरण से..अर्थात प्रचार-प्रकाशन-प्रदर्शन से तथा प्राकृतिक प्रेरणा से भौगोलिक एवं शीत,उष्ण, वर्षमान से प्राप्त होती है|.."
अभ्यास दर्शन (अस्तित्व मूलक मानव केंद्रीत चिंतन) 
प्रणेता- आदरणीय ए.नागराज जी

विकास

विकास का मतलब मांसाहार नहीं यह देव मानव के स्वभाव नहीं है...तो विकास का सही अर्थ क्या????


विकास
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- जीवन पद में संक्रमित होना|
- परमाणु में गठन पूर्णता और क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता|
- गुणात्मक परिवर्तन अर्थात पदार्थवस्था से प्राणावस्था,
प्राणावस्था से जीवावस्था, जीवावस्था से ज्ञानावस्था|
ज्ञानावस्था में पाये जाने वाले पशु मनुष्य से राक्षस मनुष्य, राक्षस मनुष्य से मानव, मानव से देवमानव-देव मानव से दिव्य- मानव के रूप में| 
(परिभाषा संहिता(अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रीय चिंतन)- पे.न.- २०४)

तो ये है "विकास" का सही अर्थ...
अब यह बताइए हमने कौन सा विकास किया अब तक? अब जो भी विकास होना है जो हम मानव के हाथ में है अर्थात पशु मनुष्य और राक्षस मनुष्य से मानव, मानव से देवमानव-देव मानव से दिव्य- मानव के रूप में... यह किस आयाम द्वारा संभव है?
"शिक्षा संस्कार" द्वारा...

तो स्वयं में जाँचे कि कौन इस प्रयास में लगा है और उसे सामने लाइए...और यदि इन लोगों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है तो उनको यह एहसास दिलाना हमारा और आपका काम है...
अब वे अपनी बेहूदा मान्यताएँ/पूर्वाग्रह हम पर थोप नहीं सकते...शिक्षा (जो वर्तमान में चल रही नहीं बल्कि शिक्षा का मानवीयकरण पर जो काम कर रहा है ) से कम में इनकी बात सुने भी नहीं....

प्रतिबिम्ब और पारदर्शिता

लहरें पानी में जितनी ज्यादा हो उतनी ही दिक्कत होती है स्वयं का प्रतिबिम्ब और पानी के आर-पार देखना और जब तक यह स्थिति रहती है तब तक कई प्रकार के भ्रम बने ही रहते हैं|
 

जैसे एक वृक्ष की सुखी टहनी कभी एक रस्सी तो कभी सांप जैसे दिखाई देने लगती है|
पर ज्यों ही लहरें शांत व पानी साफ़ होने लगता है हम बहुत ही स्पष्ट रूप से अपने और अन्य वस्तुओं के प्रतिबिम्बों के साथ पानी के पारदर्शिता गुण की वजह से अंदर के दृश्यों को भी देख पाते हैं|
इसका चित्रण हो जाता है....पानी की उसी शांत अवस्था में और अलग गहराइयों पर चीजों का परिक्षण करते हैं और हर बार स्वयं आश्वस्त रहते हैं कि जो हमने पहली/दूसरी/तीसरी बार... देखी वह सत्य ही है अब हम प्रत्यके गहराई में दिखी चीजों और प्रतिबिम्ब का विश्लेषण करते हैं समझने का प्रयास करते हैं, समझ में आते ही हम उन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं...आवश्यकता का मूल्यांकन , अनावश्यकता की समीक्षा कर पाते हैं| उसे अन्य लोगों को भी बताते हैं...इसे कहा देखना, समझना, जीना, समझाना|

यह स्थिति स्मृति में चित्रित, बुद्धि में एक बार पक्की हो गई और वस्तुओं को इस्तेमाल कर देख लिया तो पानी में चाहे कितनी भी ऊँची लहरे उठें हम भ्रमित नहीं होंगें और सही निर्णय लेने की स्थिति में होंगे|

वही जो मानव पानी में उठे लहरों के शांत होने पर व पानी के पूरी तरह से स्वच्छ होने तक इंतज़ार नहीं कर पाता वह हर बार एक नया चित्रण, चयन, विश्लेषण करता है तथा अपनी तरह अन्य मानवों को भी भ्रमित कर देता है|

उसकी मूल चाहत (स्वयं के साथ औरों को भी सुखी रहने की प्रेरणा देना) गलत है ऐसा नहीं है पर उसमें धीरता नहीं अत: वह हर बार गलत/भ्रमित निष्कर्षों तक पहुँच जाता है गलत समझता है, गलत जीता है और गलत समझाता है...

निष्कर्ष- अत: हमें धीरता के साथ स्थितियों को समझने का प्रयास करना चाहिए या फिर जिसने यह सारा दृश्य देखा, समझा, जीया हो उससे समझा जाए और उनके मार्गदर्शन में उस स्थिति तक पहुँचा जाए...
अब आपको कौन सा रास्ता सही लगता है? यह तो आपको ही तय करना है अनुसन्धान विधि या अध्ययन विधि?
धीरता तो दोनों में ही चाहिए..उसके बगैर तो सही परिणाम की अपेक्षा असम्भव है| 

नोट- हर इकाई का प्रतिबिम्ब अनंत कोणों पर उपस्थित इकाइयों में पड़ा ही हुआ है यही आधार है कि हर इकाई दूसरे इकाई को पहचान कर निर्वाह कर पाती है अत: हर बार सही प्रतिबिम्ब को देखने/समझने के लिए लहरों के शांत होने तक धीरता तो बनाये रखना होगा|

देखिये जाँचिये आपका प्रतिबिम्ब कितने कोणों पर कहाँ पड़ा हुआ है क्या आप अपना सही प्रतिबिम्ब देख पा रहे हैं? पहचान और निर्वाह हो पा रहा है|
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प्रतिबिम्ब व पारदर्शी-पारगामी का वास्तविक अर्थ-

प्रतिबिम्ब- प्रत्येक एक एक रचना विधि में अस्तित्व विधि में हर उपयोगी व पूरक इकाई के रूप में होना बिम्ब है| इकाई अपने सभी ओर प्रतिबिंबित ही है, परस्परता में पहचान का आधार प्रतिबिम्ब ही है| (परिभाषा संहिता- पे.नं.-१५४) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)

पारदर्शी-पारगामी- व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक एक डूबे, भीगे, घिरे रहना का प्रमाण, भीगे रहने का प्रमाण उर्जा सम्पन्नता, डूबे रहने से परस्परता की पहचान, पारगमियता ऊर्जा सम्पन्नता के रूप में परस्परता में (एक -एक) प्रतिबिम्ब पहचानने के अर्थ में| 
( परिभाषा संहिता- पे.नं.-१४०) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)
प्रणेता- आदरणीय ए.नागराज जी

Tuesday, April 1, 2014

India should be a rewarded for the good effort...

Respected president Barak Obama ji and all countries leaders please listen this message very carefully...

"We have assumed abundance to be in the form of comforts and hoarding, while highest form of abundance is awakening of jeevan (Body and I). It is only upon awakening that each human being can become free from conflict, sorrow and deprivation. This I have seen by thorough practice in my living. Each individual naturally expects to lead a life of abundance, and fountainhead of abundant life is understanding (realization in coexistence) only." - Shree A. Nagraj.  
So don't punish India for the solar panel. If you will be against of this step then no person has dare to do this good activity. 

http://www.thepetitionsite.com/624/749/511/dont-punish-india-for-developing-solar-power/?taf_id=10890365&cid=fb_na