लहरें पानी में जितनी ज्यादा हो उतनी ही दिक्कत होती है स्वयं का प्रतिबिम्ब और पानी के आर-पार देखना और जब तक यह स्थिति रहती है तब तक कई प्रकार के भ्रम बने ही रहते हैं|
जैसे एक वृक्ष की सुखी टहनी कभी एक रस्सी तो कभी सांप जैसे दिखाई देने लगती है|
पर ज्यों ही लहरें शांत व पानी साफ़ होने लगता है हम बहुत ही स्पष्ट रूप से अपने और अन्य वस्तुओं के प्रतिबिम्बों के साथ पानी के पारदर्शिता गुण की वजह से अंदर के दृश्यों को भी देख पाते हैं|
इसका चित्रण हो जाता है....पानी की उसी शांत अवस्था में और अलग गहराइयों पर चीजों का परिक्षण करते हैं और हर बार स्वयं आश्वस्त रहते हैं कि जो हमने पहली/दूसरी/तीसरी बार... देखी वह सत्य ही है अब हम प्रत्यके गहराई में दिखी चीजों और प्रतिबिम्ब का विश्लेषण करते हैं समझने का प्रयास करते हैं, समझ में आते ही हम उन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं...आवश्यकता का मूल्यांकन , अनावश्यकता की समीक्षा कर पाते हैं| उसे अन्य लोगों को भी बताते हैं...इसे कहा देखना, समझना, जीना, समझाना|
यह स्थिति स्मृति में चित्रित, बुद्धि में एक बार पक्की हो गई और वस्तुओं को इस्तेमाल कर देख लिया तो पानी में चाहे कितनी भी ऊँची लहरे उठें हम भ्रमित नहीं होंगें और सही निर्णय लेने की स्थिति में होंगे|
वही जो मानव पानी में उठे लहरों के शांत होने पर व पानी के पूरी तरह से स्वच्छ होने तक इंतज़ार नहीं कर पाता वह हर बार एक नया चित्रण, चयन, विश्लेषण करता है तथा अपनी तरह अन्य मानवों को भी भ्रमित कर देता है|
उसकी मूल चाहत (स्वयं के साथ औरों को भी सुखी रहने की प्रेरणा देना) गलत है ऐसा नहीं है पर उसमें धीरता नहीं अत: वह हर बार गलत/भ्रमित निष्कर्षों तक पहुँच जाता है गलत समझता है, गलत जीता है और गलत समझाता है...
निष्कर्ष- अत: हमें धीरता के साथ स्थितियों को समझने का प्रयास करना चाहिए या फिर जिसने यह सारा दृश्य देखा, समझा, जीया हो उससे समझा जाए और उनके मार्गदर्शन में उस स्थिति तक पहुँचा जाए...
अब आपको कौन सा रास्ता सही लगता है? यह तो आपको ही तय करना है अनुसन्धान विधि या अध्ययन विधि?
धीरता तो दोनों में ही चाहिए..उसके बगैर तो सही परिणाम की अपेक्षा असम्भव है|
नोट- हर इकाई का प्रतिबिम्ब अनंत कोणों पर उपस्थित इकाइयों में पड़ा ही हुआ है यही आधार है कि हर इकाई दूसरे इकाई को पहचान कर निर्वाह कर पाती है अत: हर बार सही प्रतिबिम्ब को देखने/समझने के लिए लहरों के शांत होने तक धीरता तो बनाये रखना होगा|
देखिये जाँचिये आपका प्रतिबिम्ब कितने कोणों पर कहाँ पड़ा हुआ है क्या आप अपना सही प्रतिबिम्ब देख पा रहे हैं? पहचान और निर्वाह हो पा रहा है|
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प्रतिबिम्ब व पारदर्शी-पारगामी का वास्तविक अर्थ-
प्रतिबिम्ब- प्रत्येक एक एक रचना विधि में अस्तित्व विधि में हर उपयोगी व पूरक इकाई के रूप में होना बिम्ब है| इकाई अपने सभी ओर प्रतिबिंबित ही है, परस्परता में पहचान का आधार प्रतिबिम्ब ही है| (परिभाषा संहिता- पे.नं.-१५४) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)
पारदर्शी-पारगामी- व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक एक डूबे, भीगे, घिरे रहना का प्रमाण, भीगे रहने का प्रमाण उर्जा सम्पन्नता, डूबे रहने से परस्परता की पहचान, पारगमियता ऊर्जा सम्पन्नता के रूप में परस्परता में (एक -एक) प्रतिबिम्ब पहचानने के अर्थ में|
( परिभाषा संहिता- पे.नं.-१४०) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)
प्रणेता- आदरणीय ए.नागराज जी
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