Wednesday, October 11, 2017

"मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है"

विज्ञान युग आने के उपरांत उन्माद त्रय (भोगोन्माद, कामोन्माद, लाभोंमाद) का लोकव्यापीकरण कार्यों में शिक्षा और युद्ध वं व्यापार तंत्र का सहायक होना देखा गया। यही मुख्य रूप में धरती को तंग करने में सर्वाधिक लोगों के सम्मतशील होने में प्रेरक सूत्र रहा। यह समीक्षीत होता है कि सर्वाधिक मानव मानस वन, खनिज अपहरण कार्य में सम्मत रहा। तभी यह घटना सम्पन्न हो पाया। यहाँ इस बात को स्मरण में लाने के उद्देश्य से ही जन मानस की ओर ध्यान दिलाना उचित समझा गया कि धरती का पेट फाड़ने की क्रिया को मानव ने ही सम्पन्न किया। इस धरती का या हरेक धरती का दो ध्रुव होना आंकलन गम्य है। मानव इस मुद्दे को पहचानता है। इस धरती के दो ध्रुवों को मानव भले प्रकार से समझ चुका है। इसी को दक्षिणी ध्रुव-उत्तरी ध्रुव कहा जाता है। इसे पहचानने के क्रम में धरती के सम्पूर्ण द्रव्यों और वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर के ओर चुम्बकीय धारा प्रवाह और प्रभाव बना ही रहती है। ये धारा प्रवाह धरती ठोस होने का आधार बिन्दु है। क्योंकि परमाणु में ही भार बंधन, अणु-बंधन के कार्य को देखा जाता है। यही क्रम से ठोस होने के कार्यकलापों को सम्पादित कर लेता है। शरीर रचना में सभी अंग-अवयव एक साथ रचना क्रम में समृद्ध सुन्दर हो पाता है। इसी क्रम में अपने आप में सर्वांग सुन्दर होने के कार्यकलाप क्रिया को यह धरती स्पष्ट कर चुकी है। इसके प्रमाण में ठोस, तरल, विरल और रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना धरती के सतह में नित्य प्रसवन के रूप में सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है। यह भी हमें पता है यह धरती के पेट में से जो कुछ भी बाहर करना होता है वह स्वयं प्रयास से ही अथवा स्वयं के निश्चित कार्यकलाप के प्रणालीएवं ज्वालामुखी बाहर कर देता है। इससे हमें यह मालूम होता है कि धरती के लिए आवश्यकीय सभी खनिज वस्तु धरती के पेट में ही समायी रहती है। यह अपने सम्पूर्ण तंदुरस्ती को व्यक्त करने के क्रम में धरती पर अथवा धरती की सतह पर रासायनिक-भौतिक रचना-विरचनाएँ सम्पन्न हो पाती है। प्राणावस्था के अनंतर ही इस धरती पर ऋतुक्रम का प्रभाव, उसी क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर रचना क्रमश: रचना क्रम में श्रेष्ठताएँ स्थापित हुई। जीवन किसी निश्चित सह-अस्तित्व विधिपूर्ण वातावरण को पाकर ही गठनपूर्णता सम्पन्न होने की क्रिया भी प्राकृतिक विधि से स्थापित है। परमाणु में विकासपूर्णता और उसकी निरंतरता ही जीवनपद है। यही चैतन्य इकाई है। यह अणुबन्धन-भारबन्धन से मुक्त रहने के कारण एवं आशा, विचार, इच्छा बन्धन से संयुक्त रहने के कारण भ्रम-मुक्ति की अपेक्षा बने रहने के कारण मानव परंपरा में जीवन शरीर को संचालित करना सह-अस्तित्व सहज प्रभाव और उद्देश्य भी है। 
जीवन में ही आशा, विचार, इच्छा बन्धन से ही भ्रमित होकर उन्मादत्रय विधि से जो कुछ भी धरती के साथ मानव कर बैठा है वह इस प्रकार से अलंकारिक स्वरूप में है कि सर्वांगसुन्दर मानव के आंतों को अथवा गुर्दों को, अथवा हृदयतंत्र को बाहर करने के उपरान्त सटीक शरीर व्यवस्था चलने की अपेक्षा करना जितना मूर्खता भरी होती है वैसे ही धरती के आन्त्र तंत्रों को अर्थात् भीतर की तंत्रण द्रव्यों को बाहर करने के उपरान्त स्वस्थ्य धरती की अपेक्षा रखना भी उतनी ही मूर्खता है। ये सब कहानियों के मूल में सार संक्षेप यही है मानव ‘‘उन्मादत्रय, तकनीकी, ह्रासविधि ज्ञान रूपी विज्ञान’’ के संयुक्त रूप में जो कुछ भी क्रिया कलाप कर पाया वह सब सर्वप्रथम धरती के सर्वांगसुन्दरता और स्वस्थ्ता के विपरीत होना आकलित हो चुकी है।
धरती का ठोस होने के क्रम में दो ध्रुव स्थापित होना, परमाणुओं का भारबल सह-अस्तित्व प्रभावी अणु संघटन क्रिया कलाप में यह धरती अपने ठोस रूप को बनाए रखा है। ऐसी सर्वांग सुन्दर धरती में छेद करते-करते एक से एक गइराई में पहुँचकर चीजें निकालने की हविस पूरा किया जा रहा है। हविस का तात्पर्य शेखचिल्ली विधि से है। इन सभी कार्यों के परिणामस्वरूप जितने भी खतरे ज्ञात हो चुके हैं, उससे अधिक भी हो सकते है, इस तथ्य को स्वीकारा जा सकता है। धरती ठोस होने के क्रम में भारबन्धन सूत्र से सूत्रित होने के क्रम में सतह पर उसका प्रभाव स्थापित रहना सहज है। ऐसी चुम्बकीय धारा का मध्यबिन्दु, इस धरती के मध्य में ही होना स्वाभाविक है। तभी ध्रुवस्थापना का होना पाया जाता है। इस धरती में दोनों ध्रुव बिन्दु है। इसीलिए चुम्बकीय धारा का मध्य बिन्दु ध्रुव से ध्रुव तक स्थिर रहना आवश्यक है। इसी ध्रुवतावश ही यह धरती अपने सर्वांगसुन्दर स्वस्थ्यता को बनाए रखने में सक्षम, समृद्घ होने में तत्पर रही ही है। विज्ञान युग के अनन्तर ही सर्वाधिक स्थान पर धरती का पेट फाड़ने का कार्यक्रम सम्पन्न होता आया। इसी क्रम में धरती के मध्य बिन्दु में जो चुम्बकीय धारा ध्रुव रूप में स्थित है वह विचलित होने की स्थिति में यह धरती अपने में से में ही बिखर जाने में देर नहीं लगेगी । इस खतरे के संदर्भ में भी मानव अपने ही कर-कमलों से किये जाने वाले कार्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है। दूसरे प्रकार के खतरे की ओर ध्यान जाना भी आवश्यक है। पहले वाला करतूत से संबंधित है तो दूसरा खतरा परिणाम से है।
इस धरती के मानव अभी तक इस बात को तो पहचान चुके है  कि इस धरती के वातावरण में प्रौद्योगिकी विधि से विसर्जनीय तत्वों के परिणामस्वरूप जल-वायु-धरती प्रदूषित विकृत हो चुकी है। यह होते ही रहेगा। इसी क्रम में धरती के वातावरण में उथल-पुथल पैदा हो चुकी है। यह भी  ज्ञात हो चुका है प्राणरक्षक विरल पदार्थों का, द्रव्यों की क्षति हो रही है। वनस्पति संसार भी सेवन करने में और उसे प्राणवायु के रूप में परिवर्तित करने में अड़चन, अवरोध पैदा होता जा रहा है। इसी क्रम में धरती के वातावरण में स्थित वायुमंडल में विकार पैदा हो चुकी है और ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुकी है। इसका क्षतिपूर्ति अभी जैसा ही मानव संसार रासायनिक उद्योगों के पीछे लाभ के आधार पर पागल है और खनिजतेल और कोयला का उपयोग करने के आधार पर प्रदूषण और धरती का वातावरण में क्षतिपूर्ति की कोई विधि नहीं है। यह भी पता लग चुका है। इसके बावजूद उन्मादवश प्रवाहित होते ही जाना बन रहा है। इस क्रम में एक सम्भावना के रूप में एक खतरा अथवा अवर्णयीय खतरा दिखाई पड़ती है। वह है, इस धरती में जब कभी भी पानी का उदय हुआ है, रासायनिक प्रक्रिया की शुभ बेला ही रही है। पानी बनने के अनन्तर ही यह धरती रासायनिक रचना-विरचना क्रम को बनाए रखने में सक्षम हुई है। यह संयोग ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोग से ही सम्पन्न होना सहज रहा है। इस विधि से समझने पर धरती के वातावरण में जो विरल वस्तु का अभावीकरण हो चुका है या होता जा रहा है, वही विशेषकर ब्रह्माण्डीय किरणों को और सूर्य किरणों को धरती में पचने का रूप प्रदान कर देता है। इसी विधि से ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश पानी का उदय हुआ, वह निकल जाने के उपरान्त अथवा और कुछ वातावरण में विकार के उपरान्त यदि वही ब्रह्माण्डीय किरण, सूर्य किरण पानी में सहज रूप में होने वाली रसायनिक गठन के विपरीत इसे विघटित करने वाली ब्रह्माण्डीय किरणों का प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाए उस स्थिति को रोकने के लिए विज्ञान के पास कौन सा उपहार है ? इसके उत्तर में नहीं-नहीं की ही ध्वनि बनी हुई है। तीसरा खतरा जो कुछ लोगों को पता है, वह है यह धरती गर्म होते जाए, ध्रुव प्रदेशों में संतुलन के लिए बनी हुई बर्फ राशियाँ गलने लग जाए तब क्या करेंगे ? तब विज्ञान का एक ध्वनि इसका उपचार के लिए दबे हुए स्वर से निकलता है- बर्फ बनने वाली बम डाल देंगे । इस ध्वनि के बाद जब प्रश्न बनती है, कब तक डालेंगे ? कितना डालेंगे ? उस स्थिति में अनिश्चयता का शरण लेना बनता है। इन सभी कथा-विश्लेषण समीक्षा का आशय ही है हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है, इस आशय से धरती के सतह में समृद्धि, समाधान, अभय, सह-अस्तित्वपूर्वक जीने की कला को विकसित करना आवश्यक है।  

(संदर्भ: आवर्तनशील अर्थशास्त्र, : संस्करण: 2009,  अध्याय:5, पेज नंबर:166- 172) -
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन बनाम मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) पर आधारित 

प्रणेता- श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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