“तुम कल प्याज भाजी , अरहर दाल एक पाव और एक कपड़े धोने का साबुन लेते हुए आ जाना...” कहकर मैंने अपनी काम वाली बाई (महरिन ) को १०० रु. दिए.
दूसरे दिन सुबह उसने मुझसे कुछ कहा जिसे मैंने ठीक से सुना नहीं और उससे ५५ रु. ले लिए.
अब मैंने ध्यान दिया मूली भाजी में भाजी तो दिख रही है पर मूली तो गायब है!
मैंने उससे पुछा – मूली कहाँ है?
उसने जवाब दिया-“ आप लोग तो मूली खाते नहीं तो मूली मैं अपने घर ले गई और भाजी आपने मंगाया था तो मैं ले आई..”
मेरे दिमाग में हिसाब किताब चल रहा था – १५ रु. का अरहर दाल, १० रु. का साबुन और उसने मुझे ५५ रु. वापस किये तो फिर २० रु. के भाजी में मूली अपने पास रख लिया?
मुझे ऐसा लगा की यह ऐसे ही मुझे कई बार बेवकूफ बना चुकी होगी...मैंने उसे थोड़े कड़क स्वर में कहा- “जो भी लेने को कहा जाता है उसे पूरा पूरा लाया करो, किसे देना है नहीं देना है इसका निर्णय में करुँगी...”
महरिन के आखों में आंसू आ गए उसने दोबारा उसी बात को कहा जो मेने ठीक से सुना नहीं था – दीदी ये भाजी मैंने अपने पैसे से लाए हैं ५ रु. किलो में मिल रहा था तो मैंने उसे ले लिया और २० रु. प्याज भाजी के लिए सब्जी वाले को दिए हैं वह कल ताज़ी प्याज भाजी ले आएगा....”
बस उसके इतना कहने की देरी थी मुझे समझ में आया की मुझसे आज कितनी बड़ी गलती हो चुकी थी जिस इंसान के ऊपर मैं विश्वास करके पूरा घर छोड़ जाती थी उस पर शक किया! शक करने की पीड़ा दोनों पक्षों को बड़ा भारी पड़ा. मैंने उससे माफ़ी तो मांगी पर यह जख्म जो मैंने उसे दिया शायद ही उसे कभी भर पाऊँ....
जीवन विद्या के अध्ययन करते समय एक सूचना कई बार आखों के सामने आई और गई पर आज पहली बार मैंने उसे अपने साथ होते देखा...
“कार्य – शेष प्रकृति (मानव को छोड़ कर) के साथ किया गया श्रम
व्यवहार – मानव का मानव के साथ सुखी होने में किया गया श्रम”
आज कार्य व्यवहार पर हावी हो गया .....
हर मानव सुखी ही होना चाहता है औरों को भी सुखी देखना चाहता है. चाहना में “सुख” प्रधान है जब कभी हम चाहना में शक करते हैं स्वयं भी पीड़ित होते हैं और दूसरों को भी करते हैं ....
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