Thursday, October 18, 2018

मानवीय स्वावलंबन

स्वयं स्फूर्त विधि से उत्पादन करने वाली परंपरा को "स्वावलम्बन" कहते है। उत्पादन कार्य में कुशलता,निपुणता व समझदारी सहित परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने वाले व्यक्ति को" स्वावलंबी कहा "जाता है।
श्रमशील व्यक्ति ही स्वावलंबी हो सकता है।जो व्यक्ति श्रम करने के लिए तैयार है वो कभी बेरोजगार नहीं हो सकता है। समाज में बेरोजगारी आज विकराल समस्या बनते जा रही है क्योंकि अधिकांश युवक शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी ही करना चाहता है। आज हर व्यक्ति पैसे को "प्रधान साधन" मान लिए हैं जबकि इस बात को हमें समझने की आवश्यकता है की श्रमशीलता हमारा प्रधान साधन है। पैसा सबके पास हमेशा रहे ऐसा जरूरी नहीं है। लेकिन श्रमशीलता सबके पास है ही। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो श्रमशीलता से रिक्त हो। गूंगे,लूले,लंगड़े सभी के पास श्रमशीलता रहता ही है। अतः कोई भी व्यक्ति श्रम की मानसिकता बना ले और सही समझ के अनुसार श्रम करें तो स्वावलंबी हो ही जाएगा । आज स्वावलंबन के अनेक अवसर मौजूद हैं। मेरे गुरूजी कहा करते है जितने आपके सिर में बाल हैं उतने उत्पादन कार्य हैं। आवश्यकता है तो सिर्फ स्वालंबन को समझने की। स्वावलंबन को समझने के लिए हर व्यक्ति को स्वावलंबन का लक्ष्य और प्रयोजन स्पष्ट होना होगा। 
स्वावलंबन का लक्ष्य है परिवार में समृद्धि का भाव अर्थात परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन। स्वावलंबन के लिए व्यवसाय (उत्पादन कार्य) चुनते समय इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है।
है कि मेरे द्वारा किये जा रहे व्यवसाय से प्रकृति का संरक्षण,संवर्धन और सदुपयोग हो रहा है की नहीं। इस बात को अच्छे से समझने की आवश्यकता है कि मेरे द्वारा किये जा रहे व्यवसाय से प्रकृति संरक्षित और संवर्धित हो । जैसे कि मैंने कृषि-गौशाला व्यवसाय को मेरे स्वावलम्बन के लिए चुना है जिसमे मै प्राकृतिक खेती करता हूँ । जिसमे सिर्फ गोबर गोमूत्र का उपयोग खाद और कीटनाशक के रूप करता हूँ । जिससे हमारे परिवार को पौष्टीक आहार तो मिलता ही है साथ में जमीन का उपजाऊपन बढ़ता ही जा रहा है अर्थात जमीन और अधिक उपयोगी होते जा रहा है।जिससे आने वाली पीढ़ी को अधिक उपजाऊ जमीन मिलेगी। इसी तरह से अगली पीढ़ी भी उत्साहित हो कर ऐसा ही करती रहेगी जिसकी परंपरा बनेगी। जिससे आने वाली पीढ़ी इस व्यवसाय में स्वावलंबी रहेगी ही। आजकल के अधिकांश किसान लाभ के चक्कर में अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशकों का उपयोग कर रहें हैं जिससे मानव तो बीमार हो ही रहा है । धरती भी बीमार हो रही है। धरती बंजर होती जा रही है। ऐसे में आने वाली पीढ़ी कृषि कार्य कैसे कर पाएगी। इतना ही नहीं मानव अभी हर व्यवसाय में सिर्फ अपना ही लाभ देख रहा है। जिस कारण से मौसम का असंतुलन बढ़ते ही जा रहा है। प्रदूषण बढ़ते ही जा रहा है और धरती तापग्रस्त होते ही जा रहा है।
आजकल के अधिकांश किसान अधिक लाभ के लिए नासमझीवश सिर्फ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का उपयोग कर रहें है या कुछ जो अपने को नासमझीवश समझदार मानने लगे है वो अपने परिवार के लिए अपने कुछ जमीन में आर्गेनिक खेती कर लेते हैं और खुश होते रहते है की हम आर्गेनिक अनाज खा रहें है । अब यहाँ नासमझी क्या होती जैसे कि मान लो कि किसी किसान के पास 10 एकड़ जमीन है उसमे से 9 एकड़ में रासायनिक खाद से अनाज लगाया और अनाज को बाजार में बेचकर अधिक पैसा कमाकर खुश हो जाता है। और शेष 1 एकड़ में अपने परिवार के लिए आर्गेनिक अनाज लगा कर खुश हो जाता है कि परिवार और समाज दोनों के साथ निर्वहन हो गया। अब चूँकि पैसा अधिक कमाया है तो स्वाभिक है कि बच्चे की अच्छी पढाई में भी खर्च होगा ही याने की उनका बच्चा पढ़ने के लिए शहर जाएगा और होस्टल की फीस देगा । फिर होस्टल वाले केन्टीन के लिए बाजार से आनाज खरीद लायेंगे। स्वाभाविक है ये वही 9 एकड़ रासायनिक खाद वाला ही अनाज होगा जिसको सामाज के लिए बाजार में बेच आये थे। सोचने की बात ये है कि उस किसान ने अपने बच्चे को रासायनिक खाना खाने से बचा पाया क्या?
चलो मान लो कि उन्होंने जो 1एकड़ का आर्गेनिक अनाज जो की अपने परिवार के लिए लगाया था को किसी भी तरह से भेजकर खिलाकर अपने बच्चे का पोषण कर भी लिया। अब उनका बच्चा बड़ा हो गया। उनकी शादी करनी है। तो वह किसान अपने बच्चे के लिए दुल्हन कहाँ से लाएगा??? वही 9 एकड़ की रासायनिक अनाज खाने वाली ना!! कहाँ बचा पाए अपने आने वाली पीढ़ी को रासायनिक आहार से?? सोचने का मुद्दा है??
स्वावलंबन में उत्पादन का "प्रयोजन" है कि "परिवार के हर सदस्य के शरीर का पोषण-संरक्षण स्वस्थता के अर्थ में और समाज में भागीदारी के लिए आवश्यकता के अर्थ में है। "इस तरह से हम समाज में भी सार्थक भागीदारी करते हैं। जिससे स्वयं में तृप्ति होती है। समाज में परिवार का पहचान होता है जिससे परिवार की तृप्ति होती है। एस तरह से समृद्ध परिवार परंपरा बनती है।
मानव की भौतिक आवश्यकताओं को अगर देखा जाय तो सीमित है जिसका वर्गीकरण भी निश्चित है जैसे मानव की मूल आवश्यकता आहार,आवास और अलंकार है जो कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तथा दूरगमन, दूरदर्शन तथा दूरश्रवण जो की शरीर के बेहतर सदुपयोग के लिए आवश्यक है।
इन आवश्यकताओं की पूर्ती आसानी से हो सकती है अगर तन,मन और धन का उपयोग उत्पादन के लिए सही को समझकर करें। सही प्रशिक्षण लेकर विज्ञान और तकनीकी का सही उपयोग करें। अभी सामान्यतः लोग सोचते है करने से समझ में आयेगा। जबकि समझ के अगर करें तो फल परिणाम भी निश्चित ही होता है।
स्वावलंबन के लिए सम्बन्धों को पहचानना जरूरी है। मानव-मानव के साथ और मानव-प्रकृति के साथ। सिर्फ सुविधा-संग्रह के लिए उत्पादन करने से मानव सुखी नहीं हो सकता । परिवार की आवश्यकतायें स्पष्ट एवं सुनिश्चित होने से उत्पादन कार्य में स्वावलंबी हुआ जा सकता है।

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