आज इन तीन हत्यारों को मौत की सजा का एलान किया जाता है...
फाँसी का फंदा (सभी प्रकार के), बंदूकें/ राइफल्स और कलम (जजों और संपादकों की ) l
फाँसी के फंदे पर यह गंभीर आरोप है कि ये जब से अस्तित्व में (इसका डिज़ाइन)आया तब से ही यह नाना प्रकार की हत्यायें की हैं और शामिल भी रहा ...कभी इसने बेगुनाह जानवरों को, शिकारियों को पकड़ने में मदद कर अप्रत्यक्ष रूप से अपराध किया तो कभी वीर क्रांतिकारियों की हत्या की और आज तक यह सिलसिला बदस्तूर जारी है इसका अपराध अक्षम्य हैं इसका अस्तित्व में रहना ही मानव जाति के लिए खतरनाक है l
बंदूकें/ राइफल्स/पिस्टल पर यह संगीन जुर्म दर्ज किया गया है कि इसने एक ही झटके में कई बेगुनाह प्राणी या मनुष्य के शरीर को छलनी कर उनकी निर्दयता से हत्या की हैl अस्तित्व में इसकी मौजूदगी प्राणी व मानव जगत के लिए ठीक नहीं हैl
तीसरा सबसे खतरनाक अपराधी है "कलम"
इस पर सृष्टि को बर्बाद करने की कोशिश का आरोप है इसने आज तक जो भी लिखा उसके कारण ही लोगों में लोभ आया फलस्वरूप धरती बीमार हो गई. हालाँकि इसने कुछ अच्छा भी लिखा पर इसकी तमाम अपराधों के सामने यह बौनी साबित होती है अगर यह अस्तित्व में रहा तो यह शंका है कि यह धरती ही नष्ट ना हो जाये!
क्यों ठीक है ना महोदय जी ?
किस सोच में पड़ गए?
आप सोच रहे होंगें कि यह तो पागलपन है ...भला इन अपराधों में इनका क्या दोष है असली गुनहगार तो इनका प्रयोगकर्ता है अर्थात मानव, यह तो केवल माध्यम है!
चलिए ठीक है ...मानव ही असली कुसूरवार है तो दोषी मानव को हम फाँसी दे देते हैं या फिर गोली से उनके शरीर को छलनी कर देते हैं अब देखो यह मृत हो गया..
अब बुराइयाँ खत्म क्योंकि हमने तो स्वयं को शरीर माना हुआ है तो इस शरीर को मौत की सजा देकर इसके शरीर को मिट्टी में मिला देते हैं या जला देते हैं शरीर आखिर मिट्टी और गैस का तो बना हुआ है ना ! मिट्टी में मिल जायेगा...
अब शरीर भी खत्म,बुराई भी खत्म ...
अब ठीक है ना? ओहो...अब किस सोच में डूब गए?
ठीक तो है पर ...मैं एक उलझन में पड़ गया क्या वाकई में मैं शरीर हूँ? अगर मैं कुछ और हूँ तो?
अच्छा ठीक है...यदि आप स्वयं को शरीर नहीं मानते एक चैतन्य इकाई मानते हैं तब तो आप भी वही मूर्खता कर रहे हैं...
जिस प्रकार फाँसी का फंदा, बंदूकें और कलम का कोई दोष नहीं उसी प्रकार मानव शरीर का भी कोई दोष नहीं ये तो सिर्फ माध्यम हैं l
तो फिर गुनेहगार कौन है?
ये दोषी (जिनको आपने मान रखा है ) चैतन्य इकाइयाँ हैं जो कभी नहीं मरती, इसका कभी नाश नहीं होता, ये टुकड़ों में भी नहीं बंटती...
अर्थात्?
अर्थात् हम शरीर को मार कर कभी भी बुराइयों को खत्म नहीं कर सकतेl ये बुरी प्रवृत्ति वाली चैतन्य इकाइयाँ जब मानव शरीर दोबारा धारण करती है और उसे फिर से बुराइयों से भरा वातावरण मिलता है तो फिर से वह वही अपराध दोहराएगी अपने साधन अर्थात शरीर का गलत उपयोग करेगीl
ओह! तब क्या किया जाये?
चूँकि मानव में अच्छी प्रवृत्ति व बुरी प्रवृत्ति रहती है अच्छी प्रवृत्ति तो ठीक है पर यह ज्यादा अच्छा होगा कि इन प्रवृत्तियों के स्थान पर संस्कार स्थापित हो जाये. ऐसा जब तक नहीं होगा तब तक स्थाई हल की संभावना नहींl
मैं समझा नहीं..
देखो महोदय जी, अपने चारों ओर क्या दिख रहा है?
नीला आकाश, पत्थर, पहाड़, नदियाँ ,पेड़ - पौधे, जीव जंतु और मानव...
तो इस आकाश में क्या है?
हवा...
हवा में क्या है ?
दूर फैले हुए परमाणु जिन्हें हम गैस कहते हैं वायु भी तो गैसों का मिश्रण है l
अच्छा अब पत्थर, पहाड़, नदियों को देखो..क्या नज़र आया? अच्छी तरह से देखने का प्रयास करो l
ये भी परमाणुओं से बनी हुई है..
और?
आप ही बता दीजिए..
देखो क्या ये साँस ले पा रही है?
नहीं!
हाँ तो ये अवस्था कहलाई , पदार्थ अवस्था...ठीक है?
अब देखो इन पेड़- पौधों को, और साथ ही अपने शरीर की कोशिकाओं को भी देखो..क्या ये साँस ले रही हैं?
हाँ..
और इसके अलावा क्या ये तुम्हारी बात मानती हैं?
नहीं!
तो ये कहलाई प्राण अवस्था..
अब जीव जानवर को देखो...
ये देखो इस गाय को यह तुम्हारे इशारे को समझ पा रही है तो ये हुआ जीव अवस्था...
और अंत में बचते हो तुम :)
हा हा हा
हम अर्थात मानव अवस्था....इसके अलावा तुम्हें और कोई अवस्था नज़र आएगी तो सूचित करना...
अच्छा तो ये हुई चार अवस्था- पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था, जीव अवस्था और मानव अवस्था...
अब आगे बताइए मानव में संस्कार स्थापित कैसे किया जाये?
देखो जैसा तुमने अभी कहा अस्तित्व में ४ अवस्थाएं हैं
पदार्थ अवस्था, परिणाम (अंशों की कुल मात्रा) के अनुसार चलते हैं अत: यह परिणामानुषंगी हैl
प्राण अवस्था (पेड़-पौधे व सभी प्रकार की साँस लेने वाली सभी कोशिकाएँ), ये बीज के अनुसार चलते हैं अत: यह हुई बीजानुषंगी.
जीव अवस्था, ये वंश के अनुसार चलते हैं अत: ये हुए वंशानुषंगी...
और मानव अवस्था संस्कारों अर्थात समझ के अनुसार चलते हैं अत: मानव हुआ संस्कारानुषंगी...
बात पकड़ में आई ? :)
थोड़ा थोड़ा...अच्छा ये बताओ यदि मानव संस्कारानुषंगी है तो हम उसमें अच्छे संस्कार कैसे डाल सकते हैं ?
संस्कार (समझ) हमेशा अच्छी ही होती है आप प्रवृत्ति को अच्छी या बुरी कह सकते हैंl
संस्कार या समझ मानव में शिक्षा से ही आ सकती है अत: हमें शिक्षा पर ध्यान देने की जरुरत है इसका मतलब यह नहीं कि हमें शिक्षा विद्यालयों में ही मिलती है...
शिक्षा सर्वप्रथम माँ से फिर परिवार के अन्य सदस्यों से, पड़ोसियों से, सम्बन्धियों से फिर समाज से, देश से और अन्तरराष्ट्र से ...
ओह! इसका मतलब तो शुरुआत तो स्वयं से करनी होगी फिर परिवार, समाज, देश व अन्तर्राष्ट्र तक जाना होगा तभी तो हम हमारी आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर वातावरण दे पायेंगें इस सुन्दर वातावरण में उसका सही विकास (चेतना का विकास) होगा l
बहुत अच्छे :)
फाँसी का फंदा (सभी प्रकार के), बंदूकें/ राइफल्स और कलम (जजों और संपादकों की ) l
फाँसी के फंदे पर यह गंभीर आरोप है कि ये जब से अस्तित्व में (इसका डिज़ाइन)आया तब से ही यह नाना प्रकार की हत्यायें की हैं और शामिल भी रहा ...कभी इसने बेगुनाह जानवरों को, शिकारियों को पकड़ने में मदद कर अप्रत्यक्ष रूप से अपराध किया तो कभी वीर क्रांतिकारियों की हत्या की और आज तक यह सिलसिला बदस्तूर जारी है इसका अपराध अक्षम्य हैं इसका अस्तित्व में रहना ही मानव जाति के लिए खतरनाक है l
बंदूकें/ राइफल्स/पिस्टल पर यह संगीन जुर्म दर्ज किया गया है कि इसने एक ही झटके में कई बेगुनाह प्राणी या मनुष्य के शरीर को छलनी कर उनकी निर्दयता से हत्या की हैl अस्तित्व में इसकी मौजूदगी प्राणी व मानव जगत के लिए ठीक नहीं हैl
तीसरा सबसे खतरनाक अपराधी है "कलम"
इस पर सृष्टि को बर्बाद करने की कोशिश का आरोप है इसने आज तक जो भी लिखा उसके कारण ही लोगों में लोभ आया फलस्वरूप धरती बीमार हो गई. हालाँकि इसने कुछ अच्छा भी लिखा पर इसकी तमाम अपराधों के सामने यह बौनी साबित होती है अगर यह अस्तित्व में रहा तो यह शंका है कि यह धरती ही नष्ट ना हो जाये!
क्यों ठीक है ना महोदय जी ?
किस सोच में पड़ गए?
आप सोच रहे होंगें कि यह तो पागलपन है ...भला इन अपराधों में इनका क्या दोष है असली गुनहगार तो इनका प्रयोगकर्ता है अर्थात मानव, यह तो केवल माध्यम है!
चलिए ठीक है ...मानव ही असली कुसूरवार है तो दोषी मानव को हम फाँसी दे देते हैं या फिर गोली से उनके शरीर को छलनी कर देते हैं अब देखो यह मृत हो गया..
अब बुराइयाँ खत्म क्योंकि हमने तो स्वयं को शरीर माना हुआ है तो इस शरीर को मौत की सजा देकर इसके शरीर को मिट्टी में मिला देते हैं या जला देते हैं शरीर आखिर मिट्टी और गैस का तो बना हुआ है ना ! मिट्टी में मिल जायेगा...
अब शरीर भी खत्म,बुराई भी खत्म ...
अब ठीक है ना? ओहो...अब किस सोच में डूब गए?
ठीक तो है पर ...मैं एक उलझन में पड़ गया क्या वाकई में मैं शरीर हूँ? अगर मैं कुछ और हूँ तो?
अच्छा ठीक है...यदि आप स्वयं को शरीर नहीं मानते एक चैतन्य इकाई मानते हैं तब तो आप भी वही मूर्खता कर रहे हैं...
जिस प्रकार फाँसी का फंदा, बंदूकें और कलम का कोई दोष नहीं उसी प्रकार मानव शरीर का भी कोई दोष नहीं ये तो सिर्फ माध्यम हैं l
तो फिर गुनेहगार कौन है?
ये दोषी (जिनको आपने मान रखा है ) चैतन्य इकाइयाँ हैं जो कभी नहीं मरती, इसका कभी नाश नहीं होता, ये टुकड़ों में भी नहीं बंटती...
अर्थात्?
अर्थात् हम शरीर को मार कर कभी भी बुराइयों को खत्म नहीं कर सकतेl ये बुरी प्रवृत्ति वाली चैतन्य इकाइयाँ जब मानव शरीर दोबारा धारण करती है और उसे फिर से बुराइयों से भरा वातावरण मिलता है तो फिर से वह वही अपराध दोहराएगी अपने साधन अर्थात शरीर का गलत उपयोग करेगीl
ओह! तब क्या किया जाये?
चूँकि मानव में अच्छी प्रवृत्ति व बुरी प्रवृत्ति रहती है अच्छी प्रवृत्ति तो ठीक है पर यह ज्यादा अच्छा होगा कि इन प्रवृत्तियों के स्थान पर संस्कार स्थापित हो जाये. ऐसा जब तक नहीं होगा तब तक स्थाई हल की संभावना नहींl
मैं समझा नहीं..
देखो महोदय जी, अपने चारों ओर क्या दिख रहा है?
नीला आकाश, पत्थर, पहाड़, नदियाँ ,पेड़ - पौधे, जीव जंतु और मानव...
तो इस आकाश में क्या है?
हवा...
हवा में क्या है ?
दूर फैले हुए परमाणु जिन्हें हम गैस कहते हैं वायु भी तो गैसों का मिश्रण है l
अच्छा अब पत्थर, पहाड़, नदियों को देखो..क्या नज़र आया? अच्छी तरह से देखने का प्रयास करो l
ये भी परमाणुओं से बनी हुई है..
और?
आप ही बता दीजिए..
देखो क्या ये साँस ले पा रही है?
नहीं!
हाँ तो ये अवस्था कहलाई , पदार्थ अवस्था...ठीक है?
अब देखो इन पेड़- पौधों को, और साथ ही अपने शरीर की कोशिकाओं को भी देखो..क्या ये साँस ले रही हैं?
हाँ..
और इसके अलावा क्या ये तुम्हारी बात मानती हैं?
नहीं!
तो ये कहलाई प्राण अवस्था..
अब जीव जानवर को देखो...
ये देखो इस गाय को यह तुम्हारे इशारे को समझ पा रही है तो ये हुआ जीव अवस्था...
और अंत में बचते हो तुम :)
हा हा हा
हम अर्थात मानव अवस्था....इसके अलावा तुम्हें और कोई अवस्था नज़र आएगी तो सूचित करना...
अच्छा तो ये हुई चार अवस्था- पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था, जीव अवस्था और मानव अवस्था...
अब आगे बताइए मानव में संस्कार स्थापित कैसे किया जाये?
देखो जैसा तुमने अभी कहा अस्तित्व में ४ अवस्थाएं हैं
पदार्थ अवस्था, परिणाम (अंशों की कुल मात्रा) के अनुसार चलते हैं अत: यह परिणामानुषंगी हैl
प्राण अवस्था (पेड़-पौधे व सभी प्रकार की साँस लेने वाली सभी कोशिकाएँ), ये बीज के अनुसार चलते हैं अत: यह हुई बीजानुषंगी.
जीव अवस्था, ये वंश के अनुसार चलते हैं अत: ये हुए वंशानुषंगी...
और मानव अवस्था संस्कारों अर्थात समझ के अनुसार चलते हैं अत: मानव हुआ संस्कारानुषंगी...
बात पकड़ में आई ? :)
थोड़ा थोड़ा...अच्छा ये बताओ यदि मानव संस्कारानुषंगी है तो हम उसमें अच्छे संस्कार कैसे डाल सकते हैं ?
संस्कार (समझ) हमेशा अच्छी ही होती है आप प्रवृत्ति को अच्छी या बुरी कह सकते हैंl
संस्कार या समझ मानव में शिक्षा से ही आ सकती है अत: हमें शिक्षा पर ध्यान देने की जरुरत है इसका मतलब यह नहीं कि हमें शिक्षा विद्यालयों में ही मिलती है...
शिक्षा सर्वप्रथम माँ से फिर परिवार के अन्य सदस्यों से, पड़ोसियों से, सम्बन्धियों से फिर समाज से, देश से और अन्तरराष्ट्र से ...
ओह! इसका मतलब तो शुरुआत तो स्वयं से करनी होगी फिर परिवार, समाज, देश व अन्तर्राष्ट्र तक जाना होगा तभी तो हम हमारी आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर वातावरण दे पायेंगें इस सुन्दर वातावरण में उसका सही विकास (चेतना का विकास) होगा l
बहुत अच्छे :)
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