Thursday, January 30, 2014

मध्यस्थ दर्शन की रोशनी में एक संक्षिप्त विचार

मध्यस्थ दर्शन की रोशनी में एक संक्षिप्त विचार व्यक्त करने का प्रयास 
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"मानव अवस्था/ज्ञान अवस्था को प्रमाणित करने में आदरणीय ए नागराज जी का प्रयास" 
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एक लोहे का परमाणु व अन्य किसी पदार्थ (ठोस, तरल, विरल/वायु) के परमाणु तभी प्रमाणित होते हैं जब वे सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर पाते हैं|यही वजह है कि पदार्थ अवस्था प्रमाणित है|
यही अवस्था बाकी ३ अवस्था (प्राण, जीव, मानव/ज्ञान) का आधार है| सोचिये यदि ये प्रमाणित नहीं होते तो क्या होता?

इसी तरह, प्राण अवस्था भी सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर स्वयं को प्रमाणित किया हर साँस लेती कोशिकाएँ इसका उदाहरण है|

जब ये दोनों अवस्था प्रमाणित हुई उसके पश्चात ही जीव अवस्था का प्रादुर्भाव हुआ और वह भी अपने अपने वंश के अनुसार सार्वभौम में भागीदारी कर स्वयं को प्रमाणित किया| इसका प्रमाण ही है जंगल, जमीन समृद्ध हैं| आपने यह कभी नहीं सुना होगा कि हाथियों ने जंगल में भारी तबाही मचाई य फिर शेर, बाघ ने इतने हिरन चीतल का शिकार कर घनघोर अपराध किया| हमें उनके आचरण पर पूरा विश्वास है| 
अब मानव अवस्था को देखते हैं तो मात्र एक, दो, तीन, मानवों के मानवीय आचरण या उनके प्रमाणित होने से क्या सम्पूर्ण मानव जाति/ अवस्था स्वयं को प्रमाणित कर पायेगी? जैसा कि बाकी तीनों अवस्था ने किया है?
नहीं ना?
जब तक एक एक मानव (समूची मानव अवस्था) अखंड समाज व सार्वभौम व्यवस्था में अपनी भागीदारी नहीं करेगा तब तक वह प्रमाणित नहीं हो सकती|
अत: यह हर प्रमाणित मानव का दायित्व /जिम्मेदारी बनता है कि वह प्रत्येक मानव को उसके जैसा बनाने का (गुणित होने का/ multiply) प्रयास करें| 

और इसी कार्य में ही आदरणीय ए नागराज जी (जिन्हें हम प्रेम से "बाबा जी" कह कर संबोधित करते हैं) लगे हुए हैं| उनकी सही मायने में पूजा करने या उन्हें श्रेष्ठ बताने का अर्थ है कि उनके जैसा बनने का प्रयास..|
जब तक यह स्थिति नहीं आती तब तक यह प्रयास करते जाना है क्योंकि इसके अलावा तो और कोई रास्ता नहीं दिखता निरन्तर सुख पाने का...ऐसा मेरा मानना है जानना शेष है|
जिन भाई बहनों की गति अच्छी है वे अन्य जिज्ञासुओं बंधुओं को सहयोग कर अपने दायित्व निभा ही रहे हैं| क्योंकि इसी तरह हम सब मिलकर ही एक दूसरे का सहयोग कर ही मानव अवस्था को प्रमाणित होने की स्थति में पहुँचा सकते हैं... 
हरी हर....

Friday, January 24, 2014

पीचडी

एक बच्चा जब अपनी पढ़ाई शुरू करता है माता-पिता के साथ वह भी इंजीनियर, डॉक्टर इत्यादि के सपने देखना शुरू करता है| (इन सब पदों के पीछे स्वयं व अपनों के लिए सुविधा का इंतजाम ही है|)
कुछ entrance exams (प्रवेश परीक्षा) के बाद उसका चयन होता है|
महँगी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता है, अगर उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं तो माता -पिता कर्ज लेकर अपने बच्चों को पढ़ाते हैं पर यह सभी को ज्ञात है कि ऐसे कॉलेजों का वातावरण कैसा होता है?
नतीजतन बच्चा सिर्फ आसमान में ही उड़ने के ख्वाब देखने लगता है|
उसे काफी प्रयास करने के बाद किसी अच्छे युनिवर्सिटी में एक अध्यापक की नौकरी मिलती है| अपने वह कई साल वहाँ पढ़ाने (तकनिकी ज्ञान) में लगाता है| तभी उसे अचानक पता चलता है कि इस जॉब (सम्मानीय शब्द) को बचाए रखने के लिए उसे पीचडी करना आवश्यक है| 
और पीचडी एक ऐसी बला है जो हर किसी के बस की बात नहीं है यदि पढ़ते पढ़ते ही (बगैर किसी ब्रेक के ) कर ली जाए तो ठीक है वर्ना...
मेरे जानकारी में ऐसे एक दो कुछ लोग हैं जो लगभग अपनी मानसिक संतुलन खोने की स्थिति में थे वह तो भावनात्मक सहयोग मिलने से ऐसी स्थति से स्वयं को निकाल पाये| 
अगर आप में क्षमता भी है तो भी आगे की प्रक्रिया इतनी जटील है (मार्गदर्शक प्रिय, हित, लाभ दृष्टि के चलते भावनात्मक शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ते) कि ये खून के आँसू रुला डालते हैं| 
यदि आप अच्छी खासी रकम जुगाड़ कर सकते हैं इनकी (मार्गदर्शक की) चमचागिरी कर सकते हैं तो आपकी पीचडी थोड़ी आसान हो जायेगी| 
खैर आधी उम्र बीतने के बाद जब आपको पता चलता है कि यह डीग्री अत्यंत आवश्यक है तो उस समय हालात होती है "ना घर के ना घाट के"...आप ठगे से महसूस करते हैं|
४५-४६ की उम्र में भी पीचडी की तैयारियों में लगे हुए हैं और इसे पूरा करने के लिए कई बार लोग ऐसे कार्यों को हाथ में लेते हैं जो इनके अहं को ठेस पहुंचाते हैं क्योंकि इसने आसमान से जमीन का सफर करना तो सीखा नहीं है|
अब बताइए इस बच्चे ने जो अब प्रौढ़ हो चूका है ने क्या जिंदगी जिया?
ना कभी खेतों में श्रम किया ना कभी कोई जीवन जीने की कला सीखी, ना ही शादी कर पा रहा है (कुछ खुशकिस्मत हैं जिन्हें उनके हमसफ़र मिल गये|) ना ही माता-पिता को समय दे पा रहा है खुशियाँ तो मीलों दूर...
अब अगर वह निर्णय लेता है कि उसे यह जॉब छोड़ कर कुछ और करना है तो वह क्या करे?
श्रम (प्रकृति के साथ किया गया कार्य) करना सीखा होता उसके महत्व को जाना होता तो समृद्धि के भाव में जीता पर अब वह समृद्धि (जिस शब्द को उसने कभी जाना नहीं उसके लिए तो समृद्धि का अर्थ खूब सारा पैसा है) के लिए शॉर्ट कट तरीके खोजता है जो "स्वयं के प्रति सम्मान और स्वयं में आत्मविश्वास" तो कतई नहीं ला सकता|

अत: मेरी उन माता-पिता से विनम्र प्रार्थना है कि आप अपने बच्चों को जरुर इंजीनिअर, डॉक्टर इत्यादि की शिक्षा दें पर साथ ही उन्हें धरती व मिट्टी से प्रेम करना सिखाएं,श्रम व मानव/ संबंध इसके महत्व को भी समझाएं ताकि वे "स्वयं में आत्मविश्वास और स्वयं के प्रति सम्मान" के भाव में, मूल्यों में जीते हुए अखंड समाज व सार्वभौम व्यवस्था में अपनी भागीदारी कर सके|
इसके लिए आपको "सही समझ" क्या है? यह सूचना प्राप्त करनी आवश्यक है| कृपया ध्यान देवें| 
एक बच्चे को "समझदारी" देने की जिम्मेदारी सर्वप्रथम माता-पिता की, फिर परिवार, फिर आस पास के लोग उसके पश्चात आखरी में शिक्षक की होती है ...
अत: स्वयं "समझदार" बनें और अपने बच्चों को यह अच्छा वातावरण घर में देवें| 
और जो पीचडी कर रहे हैं उनके सगे-सम्बन्धियों/ मित्रों से निवेदन है कि उन्हें भावनात्मक संबल देवें और उनका हौसला बढ़ाते रहिये ताकि उन्हें अकेलेपन का एहसास ना हो और अपनी इस मंजिल को वे प्राप्त कर सकें|
All the best and good wishes for PhD students :)

हम निरंतर खुश क्यों नहीं?

चलिए इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का एक छोटा सा प्रयास किया जाये|
आखिर हमने अब तक अपनी मर्जी का ही तो सारा कुछ किया..पढ़ाई, व्यवसाय, नौकरी, सारे शौक गहनों, कपड़ों से लेकर गाड़ियाँ, घर, बीवी तक सब कुछ अपनी ही पसंद से चुना फिर भी ये खुशियाँ हमको निरंतर क्यों नहीं मिलती? या फिर कई मीलों दूर नज़र आती है| आखिर क्या कमी रह गई?

मेरा मानना है कि इन सबमें एक महत्वपूर्ण चीज छुट गई और वह है "संबंध"|
इसी संबंध व संबंधी की खुशियों के लिए सारी उर्जा लगा दी पर ना ही संबंधी खुश और ना ही स्वयं जिसने वह उर्जा लगाई|

आज हम सभी किसी ना किसी कार्यक्रम में व्यस्त हैं जैसे सामाजिक सेवा का कार्य, किसी संस्था में, शिविर में, खेती बाड़ी में इत्यादि|
आखिर  हुआ क्या ?
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"कार्यक्रम प्रधान हो गया और "समझ" व "मानव/संबंधी" पीछे छुट गया जो एक मात्र मेरे खुश रहने का आधार है| मेरे सारे कार्य-व्यवहार सिर्फ मानव/ संबंध के लिए ना होकर "सुविधा/कार्यक्रम " के लिए हो गया| मुझे यही वजह लगती है कि हम निरंतर खुश नहीं है| "
आपको क्या लगता है?

(इसे स्वयं में जाँचे, माने नहीं|)

Saturday, January 11, 2014

प्रमाणीकरण एक आवश्यकता

एक लोहे का परमाणु (पदार्थ अवस्था) भी आप कुछ भी कर लीजिए वह लोहा ही रहेगा| (परिणामानुशंगी)

एक आम का बीज, नीम का बीज, करेले का बीज (प्राणावस्था) भी किसी भी अनुकूल स्थिति में जब भी उगेगा तब जिस पौधे या पेड़ का बीज हो वही होगा| (बीजानुशंगी)

एक गाय, शेर या बिल्ली का आचरण भी उसके वंश के अनुसार होगा| एक गाय कभी शेर नहीं बन सकती और एक शेर कभी गाय नहीं बन सकता|

ये सभी प्रमाणित है और सार्वभौम व्यवस्था में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं| ये किसी भी स्थिति में अपने आचरण का त्याग नहीं करते और ना ही इन्हें प्रमाणित होने पर कोई पदक दिया जाना है|

और मानव अवस्था/ ज्ञान अवस्था को देखिये...क्या आचरण होना चाहिए? मानव है तो मानवीयतापूर्ण आचरण से कम में चलेगा क्या? हर स्थिति में यह आचरण होना चाहिए कि नहीं? (संस्कारानुशंगी)
पर यहाँ तो यह हाल है कि एक फूलझड़ी (किसी आवेशित परमाणु/ मानव द्वारा) लगी नहीं कि सीधे रॉकेट बन आसमान में ब्लास्ट हो जाते हैं|
क्या हम एक लोहे के टुकड़े, एक चूहे, बिल्ली से भी गए गुजरे हैं कि अपने आचरण में रह नहीं सकते?
"प्रमाणित होना " कोई गोल्ड मेडल की प्राप्ति के लिए नहीं| यह एक आवश्यकता है| हर मानव की आवश्यकता है जैसे लोहे का कण कहीं भी हो लोहा ही रहेगा वैसे मानव कहीं भी हो उसे मानव के आचरण में ही होना चाहिए|
तभी हम सार्वभौम व्यवस्था में अपनी भागीदारी निभा पायेंगें/ भूमिका का निर्वहन कर पायेंगें|
वरना इस सृष्टि को हमारी कोई आवश्यकता भी नहीं है|
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जांचिए प्रमाणित होने की आवश्यकता है कि नहीं?