विकास (अपनी मान्यताओंनुसार) के नाम पर अपने फायदे के लिए गाँव उजाड़े गए.....
अपने फायदे के लिए जंगलों को उजाड़े गए व उजाड़े जा रहै हैं....
अपने फ़ायदे के लिए शहर बनाया ताकि उसके कारखानों में ग्रामीण लोगों को काम पर लगाया जाए,
शिक्षा ऐसी रखी गई ताकि सब उन कंपनियों के गुलाम बने....
अब परिणाम देखो किसी को भी ठीक से सभाल नहीं पा रहे हैं।
शहर में एक आदमी बहुत अमीर और खेत बेचकर शहर आकर उनकी नौकरी करने वाला मिडिल क्लास या गरीब!
एक के पास लाखों करोड़ों की नौकरी, एक के पास वह पढ़ाई करके भी बेरोजगारी!
क्या यही समाज की स्थापना करनी थी? क्या यही सबका सपना था?
अभी भी वक्त है जो जहाँ है उनको वहीं ऐसा वातावरण दिया जाए जिससे उनका सम्पूर्ण विकास हो।
किसी को मत उजाड़ो, आज की तारीख में ये शहर, महानगर किसी को नहीं सभाल सकते जबकि गाँव अब भी सारे शहर के लोगों के पेट भरता है।
गाँव में किसी परिवार में सबके लिए काम होता था/है।कोई बेरोजगार नहीं होता।
आदिवासियों का घर उनका जंगल है। उनका रोजगार का वह साधन है उसे संसाधनों के लिए मत उजाड़ो।
हमारे कॉन्क्रीट के शहरों में उनके लिए कुछ भी नहीं सिवाय शोषण के।
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उद्योगों की भी आवश्यकता है लेकिन वह आवश्यकता के हिसाब से उत्पादन होना चाहिए यह नहीं कि अपने उत्पादन को खरीदने के लिए विज्ञापनों के माध्यम से बाध्य किया जाए।
इसके क्या क्या दुष्परिणाम है यह हम सबको विदित है।
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महानगरों की उपलब्धि प्रधानतः महत्वाकांक्षा संबंधी है गाँवों की उपलब्धि प्रधानतः सामान्याकांक्षा है पर अभी का वातावरण जागृति के लिए नहीं है अतः इनका दुरुपयोग ज्यादा है सदुपयोग कम। अभी ये तीन उन्माद(भोगोन्माद, कामोन्माद और लाभोन्माद) को समर्पित है।
अब न तो शहरों को मिटाया जा सकता है ना गाँवों को तो अब सार्थकता कैसे हो?
बस जागृति का वातावारण तैयार हो, धीमा धीमा प्रयास चल ही रहा है लोगों की मानसिकता में परिवर्तन होते ही स्वमेय ही सभी सामान्यकांक्षा (रोटी, कपड़ा, मकान) महत्वाकांक्षा (दूरसंचार, दूरश्रवण, दूरगमन) सम्बंधी वस्तुएं उसके लिए समर्पित हो जाएंगी। चीजें खुद ब खुद संवर जाएगी।
और यह शहरों व गांवों की सुंदरता होगी। और प्रकृति में इसका असर दिखेगा। प्राकृतिक संसाधनों का आवर्तनशीलता का ध्यान रखते हुए सदुपयोग होगा।
और यही वातावरण वास्तविक विकास (जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमण) के लिए योगदान होगा।
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