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● पदार्थ अवस्था के अंतर्गत परमाणुओं (गठनशील परमाणु) में निहित अंशों के एक दूसरे को लगातार निरंतर पहचानने, निर्वाह करने व पूरकता की ताकत ये धरती व ग्रह गोल.....
● पदार्थ अवस्था के अंतर्गत परमाणुओं (गठनशील परमाणु) में निहित अंशों के एक दूसरे को लगातार निरंतर पहचानने, निर्वाह करने व पूरकता की ताकत ये धरती और रस रसायन...
● पदार्थ अवस्था के अंतर्गत परमाणुओं (गठनशील परमाणु) में निहित अंशों के एक दूसरे को लगातार निरंतर पहचानने, निर्वाह करने व पूरकता की ताकत ये धरती, रस-रसायन और सांस लेती कोशिकाएं (काई से लेकर पेड़ पौधे व जीव और मानव शरीर)।
कैसे सुंदर व्यवस्था को पहचान कर निर्वाह कर रहे हैं। एक एक कोशिकाओं में छोटी सी छोटी इकाई व्यवस्थित, हर जगह व्यवस्था।
● यह गठन शील परमाणु के स्वयं में व्यवस्था की ताकत का परिणाम है।
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इससे सिद्ध होता है कि इकाइयाँ जिस वस्तु को पहचानती है उसके साथ निर्वाह करती ही है।
● अभी मानव स्वयं को शरीर मानकर उसके अनुरूप ही पहचानना और निर्वाह करता है। सारा कार्य व्यवहार शरीर और शरीर से जुड़ी पहचान को समर्पित।
● जब स्वयं को जानना हो जाये तो मानना, पहचानना और निर्वाह करना स्वयं के लक्ष्य को समर्पित होगी।
स्वयं का लक्ष्य (सुख, शांति, संतोष आंनद)…
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● स्वयं में व्यवस्था अर्थात "जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना"...
● जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करने की ताकत अर्थात गठनपूर्ण परमाणु का प्रयोजन अभी पूरा नहीं हुआ है।
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● जीवों में जीवन शरीर से संचालित है।
जबकि मानव में शरीर जीवन से संचालित होने की आवश्यकता है।

● और यह काम होगा समझदारी से...
● समझदारी आती है -
स्वयं की व्यवस्था का ज्ञान से ( जीवन ज्ञान),
अस्तित्व की व्यवस्था के ज्ञान से (अस्तित्व ज्ञान) व
मानव की इस सार्वभौम व्यवस्था में 3 नियमों {प्राकृतिक, सामाजिक व बौद्धिक} सहित स्वयं के प्रयोजन के ज्ञान से (मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान)...
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● अस्तित्व में सिस्टम (सार्वभौम व्यवस्था) है पाँच आयाम और उसमें भागीदारी...
● जैसे अभी हम एक ही व्यक्ति कई जगह जैसे घर में , खेत मे, बाजार में, मॉल में, ऑफिस में, सोशल मीडिया में, समाज में, इंटरनेट की दुनिया में जैसा कार्य व्यवहार करना होता है वैसा ही करते हैं।
पर अभी तृप्ति नहीं मिली क्योंकि यह सह अस्तित्व के डिजाइन के विपरीत है।
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● व्यवस्था ही पहचान आती है। इकाइयों की पहचान व्यवस्था में भागीदारी ही है।
● जैसे शरीर एक व्यवस्था है उसमें व्यवस्था दिखती है और सारे अंग अव्यवयों की उस व्यवस्था को बनाये रखने में भागीदारी दिखती है।
● अत: ऐसे ही सह अस्तित्व के नियमों, प्रयोजनों/ सार्थकता को जानना, मानना, पहचानना... उसके अनुरूप सार्वभौम व्यवस्था (सिस्टम) को पहचानने तदनुरूप उसमें भागीदारी करना आज की आवश्यकता है।
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और यह व्यवस्था समझदारी (3 ज्ञान) से सुत्रित होगी। फलस्वरूप सह-अस्तित्व में “अखंड समाज/ दस सोपानीय व्यवस्था” के रूप में प्रकाशित होगी।



(मध्यस्थ दर्शन की रोशनी में व्यक्त विचार, प्रस्तुति: रोशनी (विद्यार्थी की हैसियत से))
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