ज्ञान (सह अस्तित्व में अनुभव) या ज्ञान की सूचना या चेतना विकास मूल्य शिक्षा की आवश्यकता क्यों?
जैसा कि हम पहले प्रकृति से कैसे जुड़े हैं, कैसे हर क्षण हम चाहे या न चाहे धरती की चारों अवस्था के साथ जुड़े ही हुए हैं और हर क्षण कुछ न कुछ लेते ही रहते हैं। हम स्वयं प्रकृति का अंश हैं इन मुद्दों पर थोड़ा संवाद किये थे। अब आगे संवाद करते हैं कि हमें ज्ञान की आवश्यकता क्यों?
तो आइए स्वयं को देखते हैं। मैं को देखते हैं। मैं भी एक प्रकृति का ही अंश हूँ। (जीवन और मानव शरीर का संयुक्त साकार रूप)
जैसे ही मुझे अर्थात मैं (जीवन/ चैतन्य इकाई) को एक विकसित मेधस युक्त शरीर का संचालन करने का अवसर प्राप्त होता है मैं एक मानव कहलाता हूँ।
मैं दिन भर क्या करता हूँ? तो मेरा ध्यान जाता है कि जब से मैं पैदा हुआ हूँ याने मानव तन के साथ हूँ तब से आज (बाल्य अवस्था से प्रौढ़ा अवस्था तक) तक कुछ न कुछ कर ही रहा हूँ।
उदाहरण के लिए मैं एक कार्य (खेती) को ध्यान देता हूँ तो दिखता है प्रकृति की एक अवस्था जैसे बीजों (प्राण अवस्था) को लेकर शरीर (प्राण अवस्था) की सहायता से एक खेत/बाड़ी/जमीन (पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था) में लगाता हूँ। तथा शरीर(प्राण अवस्था) द्वारा लगने वाले मेहनत को श्रम कहता हूँ।
अब इस बीज (प्राण अवस्था) से स्वयं ही एक नन्हा पौधा (प्राण अवस्था) निकलता है। इसमें मेरी कोई मेहनत नहीं।
इस फसल का पानी व गोबर खाद/ जैविक खाद (पदार्थ अवस्था) के उपयोग से देखभाल करता हूँ।
समय बीतने के साथ फसल (प्राणावस्था) एक दिन पक जाती है। मैं उसे किसी औजार (पदार्थ अवस्था) की सहायता से काट लेता हूँ।
फसल से प्राप्त उत्पाद को प्रोसेस करके दूसरे रूप में रूपांतरित कर देने में सहयोग करता हूँ जैसे मुरब्बा, आचार, आटा, जूस, कपड़े (प्राण अवस्था, पदार्थ अवस्था) इत्यादि तथा उसका विनिमय करता हूँ।
पर मैंने किया क्या? मैंने तो एक वस्तु को भी उत्पन्न नहीं किया! मैंने केवल एक नियम को समझकर प्रकृति से एक चीज ली और दूसरे चीज में रूपांतरित करने में सहयोग किया।
यदि सेवन भी करता हूँ तो एक अवस्था शरीर (प्राण अवस्था) का पोषण भोजन (प्राण अवस्था ) के द्वारा ही हो रहा है। या मैं पोषण में सहयोग कर रहा हूँ ताकि इस तन (प्राण अवस्था) का सदुपयोग कर सकूँ। वस्तु तो वहीं को वहीं उपयोग हो रहा है।
तो मेरी स्वयं की तो कोई चीज ही नहीं!
तो मेरा क्या है?
"ज्ञान"..... या सूचना/ चेतना विकास मूल्य शिक्षा के रूप में मिली एक मान्यता जिसे शोधपूर्वक हर पल जाँचते रहते हैं। जब स्वीकृति बन जाती है तब वह मेरी हो जाती है।
ज्ञान ही है जो मेरी है मेरे साथ हमेशा रहेगा।
सत्य के ज्ञान से ही मुझे मेरी संरचना (आत्मा, बुद्धि, चित्त, वृत्ति और मन) का ज्ञान होता है या सूचना मिलती है।
ज्ञान की सहायता से मुझे धरती कि चारों अवस्था का ज्ञान या सूचना मिलती है उसके रूप, गुण, स्वभाव और धर्म की सूचना मिलती है।
इसी ज्ञान की सहायता से मुझे कई प्रकार के बीजों (प्राण अवस्था) का ज्ञान होता है।
ज्ञान की ही सहायता से मैं कई प्रकार के मौसम में कई प्रकार के फसलों को ले पाता हूँ।
ज्ञान की सहायता से श्रमपूर्वक उत्पादन फलस्वरूप समृद्धि के भाव को प्राप्त कर पाता हूँ।
ज्ञान ही है जिसकी सहायता से मैं संबंधों में न्याय प्रमाणित करने का प्रयास करता रहता हूँ या कर पाता हूँ या मूल्यों को प्रमाणित कर पाता हूँ।
स्वयं की पहचान, अस्तित्व (जड़, चैतन्य और व्यापक) व मानवीयता पूर्ण आचरण को जानना मानना ही ज्ञान है।
ज्ञान होने पर ही मैं न्याय पूर्वक विनिमय कर पाता हूँ।
ज्ञान होने पर ही मैं औषधियों (प्राण अवस्था) का उपयोग कर अपने व संबंधियों या अन्य अवस्थाओं (प्राण व जीव) के स्वास्थ्य का ध्यान रख पाता हूँ।
शिक्षा में पूर्णता ही तब आएगी जब विद्यार्थियों को चेतना विकास मूल्य शिक्षा के साथ कौशल या तकनीकी ज्ञान/ शिक्षा भी मिले।
ज्ञान ही है जिसकी सहायता से हर मानव अपनी चेतना के विकास के लक्ष्य अर्थात अपनी पूर्णता (क्रिया पूर्णता व आचरण पूर्णता) को प्राप्त कर सकता है तथा दूसरों को इस लक्ष्य प्राप्ति में शिक्षा द्वारा सहायता कर सकता है।
ज्ञान या सूचना होने पर ही मैं प्राकृतिक नियमों, सामाजिक नियमों व बौद्धिक नियमों को पहचानकर अपनी जिंदगी शान से जी पाता हूँ।
ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति में पूर्णता, समाज में पूर्णता, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्र की पूर्णता क्या है इसकी सूचना मिलती है जिससे हम इस लक्ष्य हेतु सहयोग कर पाते हैं।
ज्ञान ही है जिसकी सहायता से हमें प्रकृति की सभी अवस्थाओं का प्रयोजन समझ आता है व हम उसका सदुपयोग कर पाते हैं इत्यादि।
अर्थात
ज्ञान द्वारा ही हम तन (जिसमें पदार्थ, प्राण और जीव अवस्था समाया हुआ ही है), मन (जीवन) और धन (पदार्थ, प्राण और जीव अवस्था) का पूरी तरह सदुपयोग कर सुख, शांति, संतोष और आनंद की प्राप्ति कर पाते हैं।
अन्ततः हमने देखा कि हमारे लिये सबसे महत्वपूर्ण सह अस्तित्व ज्ञान ही है। प्रकृति की सभी वस्तुएँ शरीर सहित मात्र उपयोग सदुपयोग की जा सकती है। आप चाहकर भी उसे निरंतर कई शरीर यात्रा में अपने साथ नहीं रख सकते। वह अस्तित्व के नियमों के अनुसार उसका रूप परिवर्तन होता ही रहता है पर ज्ञान (सह अस्तित्व में अनुभव) ही है जो मेरा है। हर पल मेरे साथ है।
दूसरे अर्थों में ज्ञान ही है जिसके सहायता से मैं स्वयं अपनी बल और शक्तियॉ को पहचान कर उसकी सहायता से धरती की अन्य अवस्थाओं को सदुपयोग कर पाता हूँ।
सह अस्तित्व रूपी परम सत्य के ज्ञान के अभाव में मेरे पास सभी अवस्थाओं के होने के बावजूद भी इनका सदुपयोग नहीं कर पाऊंगा सम्बन्धों में न्याय नहीं कर पाऊँगा। फलतः परिणाम मन और धरती में प्रदूषण और असंतुलन दिखाई पड़ता है।
अतः इस धरती के सभी मानवों को सह अस्तित्व रूपी सत्य के ज्ञान का पूरा अधिकार है। ज्ञान से किसी मानव को वंचित रखना अमानवीयता कहलाएगी।
सह अस्तित्व रूपी परम सत्य ज्ञान से ही चित्त में उठी जिज्ञासा शान्त होती है व हम तृप्त होते हैं अहंकार का शमन होता है इस कारण दया, कृपा, करुणा, धीरता, वीरता, उपकार अर्थात मानवीय स्वभाव में जी पाते हैं...
(मध्यस्थ दर्शन के विद्यार्थी के हैसियत से प्रस्तुति, किसी भी प्रकार की त्रुटि होने पर मैं लेखिका रोशनी स्वयं जिम्मेदार हूँ)
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