Tuesday, December 15, 2009

क्या करना चाहिए हमें?







क्या नज़ारें हैं....? पूरे भारत में मुश्किल से आपको कोई जगह मिलेगी जहाँ आपको इनके दर्शन नहीं होंगे ! जहाँ देखो वहीं फैले नज़र आ जाते हैं ...इनके बगैर काम भी तो नहीं चलता ना! काम आए वहां तक तो ठीक है जब उपयोग ना हो तो स्वीपर को दे दिया जाता है। अब ये स्वीपर भी जिनके मोहल्ले में आ जाए तो धन्य भाग उनके! ...अगर नहीं आए तो खाली प्लॉट है ना...आप पूछेंगे वहां क्यों डाला जाता है? अरे जनाब नगर निगम वालों ने कचरे रखने का दिया ही नहीं है तो कहाँ डालेंगे? या तो पड़ोसी का घर या तो पड़ोसी का खाली प्लॉट ... बाकि तो वो जाने क्या करेंगे कचरे का!



खैर..जाने दीजिये...
कोई तो हमें बता दीजिये की इन पोलीथिन बैगों का क्या करें?
कुछ तो समाधान होगा इनका ?
अगर इन्हें मिट्टी में डाला जाए तो यह सड़ेगा नहीं और जलाया जाए तो उससे निकलती जहरीली गैस पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती है तो इसकी अमरत्वा ही गंभीर समस्या बन गई है।
अगर इस पर कोई खोज हो रही है तो बताइए...
नगर निगम वालों पर अब हमने भरोसा करना छोड़ दिया है ...
कृपया कुछ ऐसा आविष्कार करें जो एक परिवार के लिए हो। उस यन्त्र में पोलीथिन डालने से वह दोबारा उपयोग की कोई वस्तु बन जाए।
किसी एक से शुरुआत होगी और वह देखते ही देखते विस्तृत रूप ले लेगी और यह प्यारी धरती कम से कम इन पोलीथिन बैग से मुक्त हो जायेगी....

Thursday, December 3, 2009

श्रृंगार क्यों?....

और कैसी होती है ? विधवाओं की जिन्दगी? .....
सिन्दूर लगाना, मंगल सूत्र पहनना, लाल चूड़ी, लाल बिंदी एक विवाहिता की निशानी है जो यह दर्शाता है कि वह किसी की अर्धांगिनी है।
पुरुषों को शायद ऐसे दिखावे कि जरुरत नहीं, जाने क्यों? ये तो वही जाने।
खैर जाने दीजिये ...
हम सुहागिनों को तो बहुत खुशी होती है यह सब श्रृंगार करते हुए और हम अपने को बेहद सुरक्षित महसूस करती हैं।
जैसे ही एक लड़की की शादी होती है उसमें एक गज़ब सा आत्मविश्वास आ जाता है और साथ ही श्रृंगार उसके व्यक्तित्व में खुबसूरत परिवर्तन ला देता है। दोनों जीवन भर साथ रहने और जीने मरने की कसमें खाते हैं। किसी दुर्घटनावश या किसी भी कारण से पिया इस संसार को अलविदा कह जाता है तो ये दुनिया, समाज उसकी अर्धांगिनी को छोड़ती नहीं...
उसका सम्पूर्ण श्रृंगार होता है तत्पश्चात एक एक करके उसे उतरा जाता है , दिल दहला देने वाला दृश्य होता है ...
जो हर नारी को यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि गुजरना पड़ेगा हमें भी एक दिन ऐसे ही !
अगर विधवा जवान है तो फ़िर से वह असुरक्षित हो जाती है।
मेरा आप सभी से यह सवाल है कि पति के जाने के बाद नारी श्रृंगार क्यों नहीं कर सकती?
आप कहेंगे यह सब तो पति के लिए होता है और जब पति ही नहीं तो यह सब व्यर्थ है।
पर मैं कहती हूँ कि यही श्रृंगार तो है जो उसे याद दिलाता है कि उसके प्यार ने उसे यह दिया था और इसी से उन्हें अपने बेहद करीब पाती है और सुरक्षित महसूस करती है।
एक तो ऐसे ही हमसफ़र खोने का गम... इस संसार में कितनी तनहा हो जाती है वह... कम से कम उसका प्यार ,उसका अधिकार, उसका श्रृंगार तो मत छीनो उससे...

Friday, November 27, 2009

26/11 का क्या रोना भाई? ......

* इससे ज्यादा तो लोग महंगाई से मरते हैं....
* इससे ज्यादा तो लोग नशे में मरते हैं.....
* इससे ज्यादा तो सर पर छत नहीं और ठण्ड, बारिश और गर्मी से मरते हैं लोग....
* इससे ज्यादा तो साम्प्रदायिकता की आग में जल मरते हैं भाई जो इन नेताओं द्वारा सुलगाया जाता हैं।
* इससे ज्यादा तो कर्ज में मरते हैं किसान ....
* इससे ज्यादा तो भूख में मरते हैं लोग ...
२ रु.के चावल की भी कालाबाजारी होती हैं भाई यहाँ....
* इससे ज्यादा तो नकली दूध और नकली दवा से मरते हैं लोग .....
कौन करता हैं यह?
ये तो हमारे भीतर के लोग हैं जो जल्लाद बन गए हैं
हम इन जल्लादों को क्या सजा दें?
जो बड़े बड़े न्याय की बात करतें हैं .......

Wednesday, November 18, 2009

स्वागत है ....

क्रिएटिव मंच एवं सुरेंद्र जी आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया ..... आपका मार्गदर्शन हमें मिलता रहे ....इस आशा के साथ.... आपका पुन: शुक्रिया!

Wednesday, November 11, 2009

"एक बार फ़िर से ..."

राजनीतिज्ञों ने समझ क्या रखा है? चाहे किसी भी देश के हो?
अरुणाचल को अपना बताया जा रहा है
कभी कश्मीर का राग बजाया जा रहा है
क्या यह भी जानने की कोशिश की है कि आम आदमी कैसे जीना चाहता है?
अब वक्त आ चुका है
उठो मानव उठो !
उठो मानव उठो
जागो एक बार फ़िर से

मुट्ठी भर लोगों को चुना है
जानो इनको एक बार फ़िर से

राज नहीं है इनका धरती पर
बता दो इन्हें एक बार फ़िर से

युद्घ नहीं, शान्ति चाहिए
घृणा नहीं,प्रेम चाहिए
विनाश नहीं , विकास चाहिए
इस धरती पर रहने का अधिकार चाहिए


आँखे नहीं खुली तुम्हारी?
मुट्ठी भर मानव

तो इन्हें उठा कर फेंक देना चाहिए
सचेत कर दो मानव
इनको एक बार फ़िर से

उठो मानव उठो
जागो एक बार फ़िर से ।


Wednesday, November 4, 2009

"देश बड़ा या सचिन....?"

वाह सचिन! क्या बात है , सारे मीडिया वाले सिर्फ़ इसी बात पर खुश हैं कि आपके सत्रह हज़ार रन पूरे होने वाले हैं भले ही भारत हार जाए .......
ओहो..... माफ़ करिए जनाब !ग़लत कह दिया ना ! मुझे तो यह कहाँ चाहिए था कि पहली खुशी सचिन के सत्रह हज़ार रन पूरे होने के ...फ़िर दूसरी ख़ुशी देश के जीतने पर.....
वाह -वाह क्या बात है?...

Sunday, October 11, 2009

मानव जाति नष्ट हो जाए तो दुःख नाहिं......






देखिये इन तस्वीरों को क्या लगता है आपको? ये मानव है या कुछ और ?
अपने आप को मानव कहने में भी शर्म आती है।
कैसे ये इतने निर्ममता से इन प्यारे जीवों की हत्या करते हैं?
क्या इनके हाथ नहीं कांपते?
अरे इन निरीह, मूक जीवों की आंखों में देखो ये बोल नहीं सकते तो क्या?
ये अपनी आंखों से बात करते हैं जो तुम अपने शब्दों से नहीं समझा सकते।
प्रकृति को नुकसान पहुँचाना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार है, सारी सृष्टि में तो बस ये ही राज कर सकते हैं बाकि सब तो इनके गुलाम है।
बना दी रेलगाड़ियाँ, अब इन प्राणियों को क्या मालूम की पटरी पार करते वक्त दायें बाएँ देखो।
कट भी जाए या जख्मी हो जाए तो पुरे ट्रेन में एक भी मुसाफिर नहीं मिलेगा जो इनका प्राथमिक ईलाज कराये।
मानव मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं पहले तो बहुत अच्छे, दूसरे प्रकार के तो मूक दर्शक और तीसरे ऊधमी बहुत बुरे।
तीसरे प्रकार के मानव तो ख़ुद तो परमाणु बम में बैठे ही हैं और सारी सृष्टि को भी बिठा के रखा है।
अब आपको क्या लगता है ? सारे देश हाथ में परमाणु बम रख कर चुपचाप बैठेंगें?
बन्दर के हाथ तलवार दे दी जाए तो क्या होगा? ये आप ख़ुद ही सोच सकते हैं।
तो ऐसे में हम सबको ये चिंता सता रही है की मानव जाति का क्या होगा?
पर मैं कहती हूँ कि इतनी प्यारी प्रकृति को नष्ट करने वाला यह "मानव जाति नष्ट हो जाए तो दुःख नाहिं "

Friday, October 9, 2009

और वे मुस्कुरा रहे थे ....

सबेरे अख़बार देखा,
आज फ़िर वही ख़बर .....
फ़िर से १८ जवान शहीद हो गए।
मन बहुत दुखी है आज, इतने जीवन नष्ट होते देख ।
और नीचे ही ३ मंत्रियों की तस्वीरें थी जिसमें वे मुस्कुरा रहे थे .........

Monday, October 5, 2009

"एक रुपये किलो में चावल ले लो ......."

माननीय मुख्यमंत्री जी आपकी जनता आपसे एक सवाल पूछना चाहती है की १ रुपये में चावल देकर आप किसका भला कर रहे हैं?

गरीबों की , किसानों की ,हम मध्यमवर्गीय लोगों की या फ़िर उच्च वर्गों की ?

आपके १ रुपये का चावल का अधिकांश भाग कहाँ जाता है ? यह बात किसी से छुपी नही है।

अब बात रह गयी किसानों और मध्यमवर्गीय परिवारों की जो इन गरीब मजदूरों के ऊपर निर्भर है उनका क्या होगा ?

उन किसानों के खेतों में मेहनत-मजदूरी करके ये मज़दूर दो रोटी कमाते थे।

पर अब आप सब राजनीतिज्ञों की मेहरबानी से वे मेहनत करने से कतराते हैं। ढूँढने पर बड़ी मुश्किल से कुछ मजदूर मिलतें हैं।

आप उनको कब तक एक रूपये किलो में चावल देते रहेंगे जनाब ? आख़िर एक दिन तो आपको सत्ता से जाना पड़ेगा तब इन गरीब मजदूरों का क्या होगा?

जब उन मजदूरों की जगह मशीने ले लेंगी तब तो ये कहीं के भी नही रह जायेंगे। आख़िर मध्यम वर्ग कब तक देखते रहेंगे कोई न कोई समाधान तो ढूँढ ही लेंगे।

और ये एक रूपये में चावल प्राप्त करके १ रुपये कमाने लायक भी नहीं रह जायेंगे।

सिर्फ़ वोट के खातिर तो उनको बरबाद न करें।

Tuesday, September 29, 2009

"NEWS CHANNEL AS A TAPERECORD"

All news channel except D.D. news are act like Taperecord.
Is it?
These are very good for nursery students.
एक ही समाचार आप करीब आधे घंटे तक सुन सकते हैं।
इतने गरीब है ये News Channel वाले कि इन्हें News ही नहीं मिलता बेचारे दिन रात मेहनत करके खोज लाते हैं एक -दो समाचार और पुरा दिन गुजार देते हैं।
अब सुनिए लाते हैं भी तो क्या?
जिससे हमें कोई वास्ता ही नहीं रहता। कौन किसके साथ भागा? किसको मारा? शाहरुख़ ने क्या कहा? किस सीरियल में क्या हो रहा है? आदि आदि...
आप कभी भी उनसे बढ़िया और रोचक समाचार नहीं सुन पाएंगे।
अगर रोचक है भी तो आधे घंटे तक सुनाकर बोरे कर देंगे।
तो ओ समाचार चैनल वालों .....
आपसे सनम्र निवेदन है कि मिडिया रूपी हथियार का सही इस्तेमाल कर लोगों में जागरूकता बढ़ावें।

Monday, September 21, 2009

पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए

कितना सही वाक्य है ना यह?
अब शायद ही कोई त्यौहार बचा हो जिसमें पीना अच्छा नहीं मानते।
मेरे ख्याल से राखी का त्यौहार ही बचा रह गया है। बाकी तो बस अब मवालियों का रह गया।
यकीं नहीं आता है न आपको? तो गणेश भगवान् या दुर्गा माता जी के विसर्जन में देखिएगा, शराब के नशे में धुत्त होके गुलाल पोत के फिल्मी गाने वह भी बेहुदे डिस्को गाने में थिरकते जाते हैं।
हिन्दुओं के त्यौहारों का यह हाल देखकर बहुत दुःख होता है। जब कोई मुसलमान व अन्य धर्म के लोग उस समय हमारे पास होते हैं तो मारे शर्म के हमारा सर झुक जाता है।
अपने ईश्वर की क्या दुर्गति कर दी इंसान ने!
कितना सही कहा है किसी ने -
"देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान ....
कितना बदल गया इंसान "

Tuesday, September 15, 2009

नक्सली जिन्दगी

फ़िर वही ख़बर राजनांदगांव के मदनवाड़ा में नक्सली (खासकर महिला नक्सलियों ने ) २९थ को एक अफसर सहित सभी पुलिस की हत्या की। इसे शहादत कहा जाए कि बेवकूफी, यह समझ में नही आता? हमारे पुलिस अफसर इतने बेवकूफ हैं यह अभी समझ में आया।
क्या इनको यह भी नही मालूम कि इसके पहले भी कुछ जवानों को चारा बनाकर हमारे कई जवानों को इन्होने मारा था।
एक बच्चे का सामान्य ज्ञान भी इनसे ज्यादा होगा। चतुराई में भी इनसे कई कदम आगे होंगे।
अरे सिर्फ़ भोले भाले लोगों को डरा धमाका कर अपना पोलिसि़त झाड़ने से क्या मतलब? अपनी ही सुरक्षा ख़ुद नही कर पाते तो दूसरी की खाक करोगे?
अब चालिए चलते है दूसरी तरफ इन नक्सलियों को देखते है, जब से पैदा हुई हूँ आज तक समझ में नही आया की इनका मकसद क्या हैं? क्या केवल आतंक फैलाना ही हैं?
अपनों को ही मारते हो? कोई तुमसे खुश हैं? आप सभी की जिन्दगी इतनी सस्ती है? किसके लिए गवां रहे हो समझ से परे है भाइयों।
आपस में एक दूसरे को मारने से क्या हासिल हो रहा है? क्या यह समझ में नही आता की आप सब मोहरे हैं खेल तो कोई और खेल रहा है? जो खुश हो रहा होगा चलो जनसँख्या नियंत्रण का यह भी अच्छा उपाय है।
रेल की पटरी, बिजली टावर नष्ट करना है? तो करो। आपका ही पैसा है मुफ्त में आया है दुबारा तुम्हारा ही पैसा लगा के बनवा दिया जाएगा।
कोई फर्क नही पड़ने वाला बंधू इस तरह से कोई दूसरा रास्ता चुनो कुछ करने के लिए।
जीवन इतनी सस्ती नही की ऐसे गवाओं
कुछ ऐसा करो की ख़ुद पर फक्र हो!