Wednesday, July 2, 2014

"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" या "ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत"

संक्षिप्त विचार
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=>"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" 

इस मान्यता से हम स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं| यह मान्यता अविश्वास की नींव पर ही रखी गई है| जब नींव ही "अविश्वास" पर रखी गई तब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं और जब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चल रहे हैं तो दो बात सामने आती है या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का सम्पूर्ण त्याग करें या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का पूरी तरह से उपभोग करें| जितना मन चाहे उतना उपभोग करें/ शोषण करें...
परिणाम हम सबके सामने है अब यह धरती "मिथ्या शब्द" के चपेट में आकर बीमार हो गई है|
अब धरती बीमार तो सभी बीमार|

=>"ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत" 

इस मान्यता से आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को शाश्वत (शाश्वत का अर्थ है सदा सदा...बदलता नहीं, निरन्तर रहने वाली चीजें ) मानकर चलते हैं| इस मान्यता (मान्यता इसलिए क्योंकि यह किसी और का जानना है अभी हमारा जानना नहीं हुआ) की नींव ही 'विश्वास' पर रखी गई है| सर्वप्रथम आपको स्वयं पर विश्वास होता है कि मेरा वजूद है यह मात्र कल्पना/ मिथ्या नहीं|
मैं जीवन और मानव का संयुक्त रूप हूँ मुझमें यह क्रियाएँ हो रही है| जब स्वयं को जानकार विश्वास होता है तो औरों पर विश्वास होता है कि सामने वाला भी मेरे जैसा है उसमें भी यही क्रियाएँ हो रही है इसके पश्चात ही आप स्वयं के साथ जगत के प्रयोजन को समझने का और समझकर जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत (चारों अवस्था) के साथ जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ, सम्पूर्ण जगत (चारों व्यवस्था) के साथ न्याय पूर्वक जी पाते हैं|
तो आपने देखा कि इन दो प्रकार की मान्यताओं का प्रभाव हम पर कैसा हो रहा है?
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इस संक्षिप्त पेश किये गए विचार को कृपया माने नहीं स्वयं के अधिकार पर जाँचें|

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